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________________ तत्र एकता होने पर भी विभिन्नता प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। यही तो कारण है कि जितने विशिष्ट वैयाकरण हुए, उनकी रचनाएं अलग-अलग व्याकरण के रूप में अभिहित हुई। विवेचन शैली की विभिन्नता के कारण एक ही संस्कृत भाषा में व्याकरण के कई तन्त्र प्रसिद्ध हुए। हेमचन्द्र की सर्वत्र व्यावहारिक प्रवृत्ति है। इन्होंने स्वर तथा व्यंजन विधान संज्ञाओं का विवेचन करने के अनन्तर विभक्ति, पद, नाम और वाक्य संज्ञाओं का वहुत ही वैज्ञानिक निरूपण किया है। पाणिनीय व्याकरण में इस प्रकार के विवेचन का ऐकान्तिक अभाव है। पाणिनि तो वाक्य की परिभाषा देना ही भूल गए हैं। परवर्ती वैयाकरण कात्यायन ने संभालने का प्रयत्न अवश्य किया है, पर इन्होंने वाक्य की जो परिभाषा ‘एकतिङ वाक्यम्' दी है, वह भी अधूरी ही रह गई है। बाद के पाणिनीय तन्त्र कारों ने इसे व्यवस्थित करना चाहा है, किन्तु वे भी 'एकतिङ वाक्यम्' के दायरे से दूर नहीं जा सके हैं, फलत: उनकी वाक्य-परिभाषा सीधा स्वरूप लेकर उपस्थित नहीं हो सकी है और उसकी अपूर्णता ज्यों की त्यों बनी रही है। किन्तु हेम ने वाक्य की बहुत स्पष्ट परिभाषा दी है ---‘सविशेषणमाख्यातं वाक्यम्' १।१।२६ । 'त्याद्यन्तं पदमाख्यातं साक्षात्यापारम्पर्येण वा यान्याख्यातविशेषणानि तैः प्रयुज्यमानैरप्रयुज्यमानैर्वा सहितं प्रयुज्यमाना प्रयुज्यमानं वा आख्यातं वाक्यसंज्ञं भवति ।' अर्थात् मूलसूत्र में सविशेषण आख्यात की वाक्यसंज्ञा बतलाई गई है। यहां आख्यात के विशेषण का अर्थ है अव्यय, कारक, संज्ञा, विशेषण और क्रियाविशेषणों का साक्षात् या परम्परया रहना। इस सूत्र के वृत्त्यंश से स्पष्ट है कि प्रयुज्यमान अथवा अप्रज्युमान विशेपणों के साथ प्रयुज्यमान अथवा अप्रयुज्यमान आख्यात की ही वाक्य में प्रधानता रहती है। यहां विशेषण शब्द से केवल संज्ञाविशेषण को ही ग्रहण नहीं किया गया है, अपितु साधारणत: अप्रधान अर्थ में इसे ग्रहण किया है । वैयाकरणों का यह सिद्धान्त भी है कि वाक्य में आख्यात का अर्थ ही प्रधान होता है ? हेम ने अपनी वाक्यपरिभाषा का सम्बन्ध ‘पदायुग्विभक्त्येक वाक्ये रस्नसौ बहुत्वे' २११।२१ सूत्र से भी माना है । अत: पाणिनीय नन्त्रकारों की अपेक्षा हेम की वाक्य-परिभाषा अधिक तर्कसंगत है। हेम ने सात सूत्रों में अव्यय मंज्ञा का निरूपण किया है। इस निरूपण में सबसे बड़ी विशेषता यह है कि निपात मंज्ञा को अव्यय मंज्ञा में ही विलीन कर लिया है। इन्होंने चादि को निपात न मानकर मीधा अव्यय मान लिया है। यह संक्षिप्तीकरण का एक लघुतम प्रयाम है। इत् प्रत्यय और संख्यावत् संज्ञाओं का विवेचन भी पूर्ण है । हेम ने अनुनामिक का अर्थ व्युत्पत्तिगत मान लिया है, अत: इसके लिए पृथक् मूत्र बनाने की आवश्यकता नहीं समझी है। संज्ञा प्रकरण की हेम की संज्ञाएं शब्दानुमारी हैं, किन्तु आगे वाली कारकीय मंज्ञाएं अर्थानुसारी जैनाचार्यों का व्याकरणशास्त्र को योगदान : ५५
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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