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________________ अनेक शेष कहलाता है । इनका मत है कि लोक-व्यवहार में जो चीज़ सर्वत्र प्रचलित है उसे सूत्रबद्ध निर्देश करने से शास्त्र का निरर्थक कलेवर बढ़ता है। २. सिद्धिरनेकान्तात् (१।१।१) द्वारा बतलाया गया है कि नित्यत्व, अनित्यत्व, उभयत्व, अनुभयत्व प्रभृति नाना धर्मों से विशिष्ट धर्मीरूप शब्द की सिद्धि अनेकान्त से ही संभव है। एकान्त सिद्धांत से अनेक धर्मविशिष्ट शब्दों का साधुत्व नहीं बतलाया जा सकता। ३. जनेन्द्र का संज्ञाप्रकरण बहुत ही मौलिक और सांकेतिक है। इसमें धातु, प्रत्यय, प्रातिपादिक, विभक्ति, समास आदि अन्वर्थ महासंज्ञाओं के लिए बीजगणित जैसी अतिसंक्षिप्त पूर्ण संज्ञाएं आयी हैं। इस व्याकरण में उपसर्ग के लिए 'गि', अव्यय के लिए 'झिः', समास के लिए 'मः', वृद्धि के लिए ऐप, गुण के लिए 'एप', संप्रसारण के लिए 'जिः', प्रथभाविमक्ति के लिए 'वा', द्वितीया के लिए 'इप्', तृतीया के लिए 'या', चतुर्थी के लिए 'अप्', पञ्चमी के लिए 'का', षष्ठी के लिए 'ता,' सप्तमी के लिए ‘इप्' और सम्बोधन के लिए 'किः' संज्ञाएं बतलायी गई हैं । इन संज्ञाओं की कल्पना में आचार्य का अद्भुत पांडित्य छिपा हुआ है। ४. देवनंदी ने 'सन्धौ' ४।३।६० को अधिकार सूत्र कहकर चतुर्थ अध्याय के तृतीय और चौथे पाद तथा तंचम अध्याय के कुछ सूत्रों में संधि का निरूपण किया है। अधिकार सूत्र के अनंतर छकार के परे संधि में तुगागम का विधान किया है । तुगागम करने वाले ४।३।६१-४१३१६४ तक चार सूत्र आए हैं। इन सूत्रों द्वारा हस्व, आङ, माङ तथा दी संज्ञकों के परे प्रयोगों का साधुत्व प्रदर्शित किया है। यद्यपि यह प्रक्रिया पाणिनी के समान है, किंतु इसमें अधिक सत्रों की आवश्यकता उपस्थित नहीं होती है। संज्ञाओं की मौलिकता के कारण ही अनुशासन में लाघत्व आ गया है। ५. यह पंचांग व्याकरण है। इसमें धातु पाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र और लिंगानुशासन के निर्देश पूर्णतया उपलब्ध होते हैं।' जैनेन्द्र व्याकरण की टीकाएं ___ इस व्याकरण पर अभयनंदिकृत 'महावृत्ति', प्रभाचन्दकृत शब्दाम्भोजनास्करन्यास', श्रुतकीत्ति कृत 'पंचवस्तु प्रक्रिया' और पं० महाचंद्र कृत 'लघु जैनेन्द्र'-ये चार टीकाएं प्रसिद्ध हैं । पंचवस्तु के अन्त के श्लोकों में जैनेन्द्र व्याकरण को महल की उपमा दी है। यह मूल सूत्र रूपी स्तम्भों पर खड़ा किया गया है, न्यासरूपी उसकी भारी रत्नमय भूमि है, वृतिरूप उसके कपाट हैं, भाष्यरूप शय्यातल है, टीकारूप उसके माल या मंजिल हैं और यह पंचवस्तु टीका उसकी सोपान श्रेणी है। इसके द्वारा उक्त महल पर आरोहण किया जा सकता है । अतएव यह स्पष्ट है कि पंचवस्तु के कर्ता के समय तक इस व्याकरण पर एक न्यास, दो वृत्तियां, तीन ४६ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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