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________________ कण्ठ, मस्तक, जिह्वामूल, दन्त, तालु, नासिका और ओष्ठ – ये आठ स्थान बतलाए हैं। शब्दोच्चारण के प्रयत्नों का विवेचन करते हुए स्पृष्टता, ईषत् स्पृष्टता, विवृतता, ईषद्विवृतता और संवृतता - इन पांच की परिभाषाएं दी गई हैं । वचन के शिष्ट और दुष्ट प्रयोगों के विश्लेषण में शब्दों के साधुत्व और असाधुत्व का भी प्रतिपादन किया गया है । अतः सत्य प्रवादपूर्व में व्याकरणशास्त्र की एक स्पष्ट रूपरेखा दृष्टिगोचर होती है। जैन आम्नाय के अनुसार पूर्वग्रन्थ भगवान् महावीर के पहले के हैं । इनका पूर्वान्त नाम ही इस बात का साक्षी है कि ये परम्परा में पहले ही वर्तमान थे । जैन आगम ग्रन्थों की रचना प्राकृत भाषा में है, अतः प्राकृत में रचा गया कोई प्राकृत व्याकरण अवश्य रहा होगा । प्राकृत भाषा में लिखित आगम ग्रन्थों में व्याकरण की अनेक बातें आयी हैं ।' ठाण अंग के अष्टम स्थान में आठ कारकों का निरूपण किया गया है । अनुयोगद्वार (सू० १२८) में तीन वचन, लिंग, काल और पुरुषों का विवेचन मिलता है । इसी ग्रन्थ के सूत्र १२४, १२५ और १३० में क्रमशः चार, पांच, और दस प्रकार की संज्ञाओं का उल्लेख आया है। सूत्र १३० में सात समासों और पांच प्रकार के पदों का कथन किया गया है । अतः संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि संस्कृत में व्याकरणशास्त्र के प्रणयन के पूर्व जैनाचार्यों ने प्राकृत भाषा में भी व्याकरण ग्रन्थ लिखे थे, जो आज उपलब्ध नहीं हैं । भारतीय इतिहास में ई० पू० १४ में शुंगवंश के पुष्यमित्र ने मौर्यवंश का अन्त कर मगध का शासन स्वायत्त किया है ।" यह पुष्यमित्र ब्राह्मण धर्म का अनुयायी और श्रमण-धर्म का विरोधी था । अतः इसके राज्यकाल में प्राकृत की अवहेलना और संस्कृत भाषा का पुनरुद्धार हुआ। पतंजलि जैसे भाष्यकार ने अष्टाध्यायी पर भाष्य लिखा । संस्कृत साहित्य की इस उत्क्रांति ने कुषाणकाल में विराट् रूप धारण किया और सार्वजनिक भाषा के साथ-साथ राजभाषा का पद भी इसे प्राप्त हुआ । फलतः ब्राह्मणों के साथ श्रमणों ने भी संस्कृत भाषा को ग्रंथरचना का माध्यम बनाया । श्रमणों की प्रखर प्रतिभा ने अल्पकाल में ही संस्कृत भाषा में विभिन्न प्रकार का विपुल साहित्य रच डाला । पाणिनि के पश्चात् नवीन ग्रंथनिर्माता वैयाकरण भी श्रमणों में ही हुए हैं।' पतंजलि और कात्यायन के अतिरिक्त जयादित्य और जिनेन्द्र बुद्धि ने भी पाणिनीय सूत्रों पर टीकाएं लिखी हैं। टीकाओं से केवल व्याकरण का विशदीकरण हुआ था । अत: जैन और बौद्धों ने, जो श्रमणों में प्रधान थे, व्याकरण के मौलिक ग्रंथ रचे । बौद्धाचार्य चन्द्रगोभी ने चान्द्र व्याकरण और जैनाचार्य देवनन्दी या पूज्यपाद ने जैनेन्द्र व्याकरण की रचना की । आचार्य देवनन्दी ने अपने शब्दानुशासन में निम्न छ: पूर्ववर्ती आचार्यो का उल्लेख किया है- जैनाचार्यों का व्याकरणशास्त्र को योएदान : ४३
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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