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________________ व्यवधान से पुद्गल स्कन्धों का ग्रहण होता है और उसी प्रकार से निसर्ग भी। यह सांतर पद्धति का जघन्य रूप है। अधिक से अधिक असंख्यात समय के अंतर से ग्रहण होता है । निरंतर की पद्धति में प्रति समय ग्रहण होता रहता है। लेकिन निसर्ग निरंतर नहीं होता क्योंकि प्रथम समय में ग्रहण होता है और द्वितीय समय में निसर्ग होता है। अगृहीत का निसर्ग नहीं होता है। प्रथम समय में केवल ग्रहण होता है, निसर्ग नहीं होता। अंतिम समय में केवल निसर्ग होता है, ग्रहण नहीं होता। मध्य में ग्रहण और निसर्ग दोनों चालू रहते हैं। ध्वनि चलने के लिए किसी न किसी माध्यम को चुनती है। बिना माध्यम के चल नहीं सकती। यह अनेक प्रयोगों से प्रमाणित हो चुका है। कांच के वर्तन में घंटी बजती हुई सुनाई देती है। पम्प भरा हवा को धीमे-धीमे निकालने लगें तो ध्वनि मंद होने लगती है । संपूर्ण हवा निकालने पर घंटी हिलती हुई दिखाई देती है। पर ध्वनि सुनाई नहीं देती। ध्वनि-प्रसार के लिए हवा एक माध्यम है। इसी प्रकार लोहा, तांबा, जल, पृथ्वी आदि अनेक माध्यम हैं, जिससे ध्वनि चलती है। विज्ञान की दृष्टि से प्रकाश से ध्वनि की गति बहुत ही मंद है । वर्षा ऋतु में बादल की गर्जन और बिजली की चमक एक साथ उत्पन्न होती है। किंतु प्रकाश हमें पहले दिखाई देता है, गर्जन बाद में सुनाई देती है। प्रकाश मैकिंड में जितनी दूरी को पार करता है, ध्वनि कई घंटों में भी उतनी दूरी पार नहीं कर सकती। ध्वनि उत्पन्न होती है तब ध्वनि केंद्र के चारों ओर लहरें बनती हैं। वे हवा की नहों में कंपन करती हुई आगे बढ़ती हैं। इन लहरों से प्रकंपित हवा की तहे जब कान की झिल्ली से टकराती हैं तव उसमें कंपन होता है और ध्वनि सुनाई देती है । कान ध्वनि को सुनते हैं। पर श्रवणीयता की भी सीमा रहती है। कंपन से ध्वनि पैदा होती है। हम हाथ को इधर-उधर हिलाते हैं तब कंपन होता है पर वह कंपनांक इतना कम होता है कि उससे उत्पन्न ध्वनि हमें सुनाई नहीं देती । स्वस्थ मनुष्य के कान प्रति मैकिंड बीस कंपन की ध्वनि को सुन सकते हैं। कुछ सोलह कंपन की ध्वनि को सुन लेते हैं। सामान्यत: कम-से-कम चौबीस' कंपन की ध्वनि को सुनते हैं। कंपनांक को बढ़ाते-बढ़ाते एक ऐसी सीमा आ जाती है जहां मनुष्य के कानों से सुनना असंभव हो जाता है । यह सीमा अधिक से अधिक चालीस हजार कंपन प्रति सैकिंड तक है। इससे अधिक कंपनांक को सुन नहीं सकते । कुत्ते के कान इससे आगे भी सुन सकते हैं। जैनागम कहते हैं कि वक्ता के द्वारा विजित मूल रूप हमें कभी सुनाई नहीं देता किंतु हम मिश्रित और वासिन शब्दों को ही सुनते हैं। जैसे किसी पुष्प से निकलने वाला गंध-द्रव्य अनेक रजो से मिश्रित होता है । वह मिश्रित रूप ही नाक तक पहुंचता है। इसी प्रकार वक्ता शब्दों को छोड़ता है । ये शब्द छहों दिशाओं में फैलते हुए सम-श्रेणी से चलते हैं और अन्य अनेक पुद्गल स्कन्धों से मिश्रित हो ४० : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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