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________________ नगरों आदि की भौगोलिक स्थिति से संबंधित रहा होगा जिसे किन्ही भारतीय जैन विद्वान ने तारातंबोल में रहते हुए ही लिखा होगा । जवला यमाला या जेम्लिया का भ्रष्ट रूप है और गवला हिमालय के लिए प्रयुक्त रूसी भाषा के शब्द गिमलाई का। रूसी में 'ह' को 'ग' लिखा जाता है । जेम्ल्या भी हिमालय का ही परिवर्तित फ़ारसी रूप है। भारतीय या ईरानी आर्य प्रवासियों ने ही संभवतः वहां पहुंचकर इस हिमाच्छादित प्रदेश को नव्य हिमालय या नोवाया जेम्ल्या नाम दिया जो आज तक प्रचलित है। अत: 'जवला और गवला' का अर्थ हुआ 'हिमालय से जेम्ल्या' तक का शास्त्र । इस शास्त्र की उपलब्धि पर इस भूभाग में भारतीयों के प्रभाव से संबंधित कई एक रहस्यों का उद्घाटन संभव है। कतिपय भारतीय नगरों के नामों के अतिरिक्त मुझे यह संदेह होता है कि ये वर्णन ठीक वैसे ही होंगे जो इन्होंने अपनी आंखों से देखा है। प्रतीत होता है किन्हीं प्राचीन विवरणों में इन्होंने अपने विवरणों को भी मिलाकर प्रस्तुत किया है- अन्यथा तुर्क जाति के लिए तिलंग शब्द का प्रयोग, बाबर या बेबिलोनिया के साथ अतीत में विस्मृत पवनराज का संबंध जैसी बातें जो उस काल में भारतीय सर्वथा भूल-से चुके थे, इन यात्रियों और तीर्थमाला रचने वालों के ध्यान में कैसे आती ? ये प्राचीन विवरण चौथी से छठी शताब्दी के होने चाहिए । इन स्थानों में भारतीयों ने पूर्वकाल में अवश्य ही अपने मंदिर, शिवालय आदि बनाये होंगे, शास्त्र लिखे होंगे, साधु-संत भी वहां रहते रहे होंगे, पर इस्लाम धर्म के प्रचारप्रसार और पश्चिमी देशों की राजनीतिक उथल-पुथल ने भारतीयों के इन प्रदेशों से प्राचीन मंपर्क को तोड़ दिया । बौद्ध धर्म के प्रभाव ने अपनी समान प्रकृति के जैन धर्म के अवशेषों को आत्मसात कर लिया और इसी से अब तक शोध-खोज करने वाले विद्वानों ने इसे वौद्ध धर्म से ही संबंधित कहा है । बौद्ध धर्मोपदेशकों ने भारत से बाहर जा-जाकर शताब्दियों तक धर्म-प्रचार किया और जैन या वैदिक धर्मावलंबी प्रचारकों ने ऐसा नहीं किया होगा---यह बात समझ में नहीं आती । अत: विश्वास है कि ये यात्रा-विवरण और यहां प्रस्तुत किया जा रहा इन तीर्थों का स्थान-निर्धारण अवश्य ही इस दिशा में खोज के लिए प्रेरणा देगा। १. रूसी हिन्दी छात्रोपयोगी शब्दकोश : संकलनकर्ता इ सोल्न्त्सेवा, संपादक डॉ० केसरी नारायण शुक्ल और पूर्ण सोमसुन्दरम् । २. पं० रघुनंदन शर्मा-वैदिक संपत्ति, पृ० ४१५ १७४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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