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________________ प्राकृत-अपभ्रंश : भाषा-ज्ञान की पूर्णता जैसा कि अभी-अभी कहा है प्राकृत भाषाओं पर पांच संगोष्ठियां देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में आयोजित हुई हैं और उनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि किसी भी भारतीय भाषा को, चाहे वह भारोपीय परिवार की हो या द्रविड़ परिवार की या अन्य किसी परिवार की, हम न उसकी उत्पत्ति को और न उसके विकास को पहचान पायेंगे जब तक कि प्राकृत-अपभ्रंश के उत्स तक न पहुंच जाएं। इस दृष्टि से प्राकृत के अध्ययन का एक विशेप महत्त्व है। जहां संस्कृत भाषा का अध्ययन भारोपीय परिवार की भाषाओं के तत्सम और तद्भव रूपों को समझने में हमारी सहायता करता है वहां प्राकृत-अपभ्रंश का अध्ययन भारोपीय परिवार की भाषाओं के देशज शब्दों को समझने में, (जिनकी व्याख्या संस्कृत नहीं कर पाती) और इसके अतिरिक्त अन्य अनेक भाषा परिवारों के शब्दों की उत्पत्ति और विकास को जानने में वह बहुत हद तक एकमात्र माध्यम है। इस प्रकार एक ओर तो भारोपीय भाषाओं के संदर्भ में प्राकृत का संस्कृत के समानान्तर महत्त्व है और दूसरी ओर देशज शब्दों की पहचान में उनके एकाधिकार का भी महत्त्व है। जैन साहित्य : लोकधर्म का संदेशवाहक भारतीय साहित्य विभिन्न धाराओं में विभक्त संस्कृतियों का संदेशवाहक रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारतीय साहित्य में लौकिकता (सेक्यूलरिज्म ) से संपृक्त वाङ्मय विशाल है। किंतु बहुत कुछ साहित्य धर्म, संस्कृति तथा दर्शन के सूत्रों की व्याख्या के लिए ही प्रणीत हुआ है। इसीलिए बौद्ध साहित्य निर्वाण, क्षपिकता, अनात्मा और शांति के संदेश को मुखरित करता है और ब्राह्मण साहित्य ब्रह्म अथवा ईश्वर तथा आत्मा की अमरता को वाणी प्रदान करता है। श्रमण संस्कृति का साहित्य जीव की नैतिक साधना के लिए पुद्गल के आस्रव का संवर और निर्जरा के माध्यम से उसके मोक्ष की निरंतर साधना करता है। सारे कथ्य, कथाबंध, शिल्प किंवा साहित्य के समग्र उपादान उसी साध्य को अभिव्यक्त करने के साधन हैं । समग्र दृष्टि से देखें तो ऐसा प्रतीत होगा कि जैन, बौद्ध, ब्राह्मण साहित्य ने 'कला कला के लिए' इस पाश्चात्य आदर्श वाक्य को कभी नहीं स्वीकारा । अतः जैन संस्कृति पर आश्रित साहित्य का केंद्र विदु सदा निश्चित और सुदढ़ रहा है। केंद्रीय बिदु की इस एकाग्रता के साथ ही जैन साहित्यकार ने शिल्प, विधा या कला की दृष्टि से ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे उसने न अपनाया हो। इस अर्थ में वह भारतीय साहित्यकार का सच्चा सहकर्मी रहा है। सहधर्मी होकर भी उसने साहित्य के अनेक शिखर स्थापित किये हैं। अत: कालिदास का प्रसाद, पुराणों की मिथक संपदा, महाभारत की सर्वांगीणता एवं विशालता, माघ-भारवि ४ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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