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________________ धर्मकीर्ति के प्रत्यक्ष-लक्षण की समीक्षा की गयी है। जैन दार्शनिकों ने दिड्नाग तथा धर्मकीति दोनों के लक्षणों की समीक्षा की है। विद्यानन्द ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक (पृ० १८५), प्रभाचन्द ने न्यायकुमुदचन्द्र (१० ४७) तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड (पृ० ४६) में एवं हेमचन्द्र ने प्रमाणमीमांसा (पृ० २३) में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष का विस्तार से खंडन किया है । निर्विकल्पक ज्ञान अनिश्चयात्मक होने से अप्रमाण निविकल्पक ज्ञान अनिश्चयात्मक होता है। अनिश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण नहीं माना जा सकता। क्योंकि प्रमाण वही कहलाता है जो निश्चयात्मक हो। लोक-व्यवहार में साधक न होने से अप्रमाण निर्विकल्पक ज्ञान अनिश्चयात्मक होने से व्यवहार में अनुपयोगी है। जिस प्रकार मार्ग में चलते हुए तृणस्पर्श आदि का अनध्यवसाय रूप ज्ञान अनिश्चयात्मक होने से लोक-व्यवहार में उपयोगी नहीं है, उसी प्रकार निर्विकल्पक ज्ञान भी अनुपयोगी है । अतएव वह प्रमाण नहीं हो सकता। जैन सम्मत प्रत्यक्ष प्रमाण : दो परम्पराएं जैन परम्परा में प्रत्यक्ष के लक्षण की दो परम्पराएं उपलब्ध होती हैं। पहली परम्परा मुख्य रूप से आगमिक मान्यताओं के आधार पर चली है। दूसरी परम्परा में आगमिक मान्यता तथा न्यायशास्त्र की मान्यता के समायोजन का प्रयत्न किया गया है । इस समग्र चर्चा का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है--- जैन आगमिक परम्परा में प्रत्यक्ष लक्षण और उसके भेद जैन परम्परा में प्रमाण की चर्चा ज्ञान चर्चा से प्रारम्भ होती है। आगमिक सिद्धान्तों को संस्कृत सूत्र रूप में प्रस्तुत करने वाले आचार्य उमास्वाति ने ज्ञान के पांच भेद बताकर प्रथम दो को परोक्ष तथा अन्य तीन को प्रत्यक्ष कहा है "मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानि ज्ञानम् । आद्ये परोक्षम्। प्रत्यक्षमन्यत् ॥" -तत्वार्थ० सूत्र १.६, ११, १२ अवधिज्ञान आदि तीनों ज्ञानों की परिभाषाएं इस प्रकार हैं-- अवधिज्ञान जो ज्ञान इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लिये हुए रूपी पदार्थों को जानता है वह अवधिज्ञान है। इसके मूल में दो भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दर्शन का योगदान : १२६
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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