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________________ भी महत्त्वपूर्ण है । इसलिए यहां प्रत्यक्ष के विशेष सन्दर्भ में भारतीय प्रमाणशास्त्र को जैन दार्शनिकों की देन का मूल्यांकन किया गया है। नैयायिकों का प्रत्यक्ष प्रमाण नैयायिक इन्द्रियसन्निकर्ष आदि को प्रमाण मानते हैं । वात्स्यायन ने न्यायभाष्य (१.१.३) में प्रत्यक्ष की व्याख्या इस प्रकार की है -- " अक्षस्याक्षस्य प्रतिविषयं वृत्तिः प्रत्यक्षम् । वृत्तिस्तु सन्निकर्षो ज्ञानं वा । यदा सन्निकर्षस्तदा ज्ञानं प्रमिति: । यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् ।” उद्योतकर ने भी न्यायवार्तिक (१.१.३ ) में वात्स्यायन के भाष्य का अनुगमन करके सन्निकर्ष और ज्ञान दोनों को प्रत्यक्ष प्रमाण मानकर इसका प्रबल समर्थन किया है। न्यायसूत्र की व्याख्या में वाचस्पति का भी वही तात्पर्य है-"इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्य देश्यमव्यभिचारि प्रत्यक्षम् । " ( न्याय० १.१.४ ) न्यायभाष्य ( पृ० २५५ ) तथा न्यायमंजरी ( पृ० ७३, ४७६ ) में इसका विस्तृत विवेचन है । व्यवसायात्मकं सन्निकर्षवादी नैयायिकों का कहना है कि अर्थ का ज्ञान कराने में सबसे अधिक साधक सन्निकर्ष है । चक्षु का घट के साथ सन्निकर्ष होने पर ही घट का ज्ञान होता है । जिस अर्थ का इन्द्रिय के साथ सन्निकर्ष नहीं होता, उसका ज्ञान भी नहीं होता । यदि इन्द्रियों से असन्निकृष्ट अर्थ का ज्ञान भी ज्ञान माना जाएगा, तो सबको सब पदार्थों का ज्ञान होना चाहिए। किन्तु देखा जाता है कि जो पदार्थ दृष्टि से ओझल होते हैं, उनका ज्ञान नहीं होता । दूसरी बात यह है कि इन्द्रिय कारक है, और कारक दूर रहकर अपना काम नहीं कर सकता । अतएव यह मानना चाहिए कि इन्द्रिय जिस पदार्थ से सम्बन्ध नहीं करती, उसे नहीं जानती, क्योंकि वह कारक है, जैसे बढ़ई का वसूला लकड़ी से दूर रहकर अपना काम नहीं करता । जिस प्रकार स्पर्शनेन्द्रिय पदार्थ को छूकर जानती है, उसी प्रकार अन्य इन्द्रियां भी पदार्थ संस्पृष्ट होकर जानती हैं । सन्निकर्ष के भेद ( न्यायवा० पृ० ३१, न्यायमं ० पृ० ७२) सन्निकर्ष के छह भेद हैं- ( १ ) संयोग, (२) संयुक्त- समवाय, (३) संयुक्तसमवेतसमवाय, (४) समवाय, (५) समवेतसमवाय, (६) विशेषणविशेष्यभाव । इनके उदाहरण इस प्रकार हैं - १. संयोग सन्निकर्ष : चक्षु का घट आदि पदार्थों के साथ संयोग सन्निकर्ष है । २. संयुक्तसमवाय सन्निकर्ष : घट आदि में समवाय सन्निकर्ष से रहने वाले १२२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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