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________________ जैन दर्शन में अहिंसा डॉ० हुकुमचन्द भारिल्ल 'अहिंसा परमो धर्मः' अहिंसा को परम धर्म घोषित करने वाली यह सूक्ति आज भी बद प्रचलित है। यह तो एक स्वीकृत तथ्य है कि अहिंसा परम धर्म है, पर प्रश्न यह है कि अहिंसा क्या है ? साधारण भाषा में अहिंसा शब्द का अर्थ होता है हिंसा न करना। किंतु जब भी हिंसा-अहिंसा की चर्चा चलती है, तो हमारा ध्यान प्रायः दूसरे जीवों को मारना, सताना, या उनकी रक्षा करना आदि की ओर ही जाता है। हिंसा-अहिंसा का संबंध प्रायः दूसरों से ही जोड़ा जाता है । दूसरों की हिंसा मत करो, बस यही अहिंसा है। ऐसा ही सर्वाधिक विश्वास है किंतु यह एकांगी दृष्टिकोण है। अपनी भी हिंसा होती है, इस ओर बहुत कम लोगों का ध्यान जाता है। जिनका जाता भी है तो वे भी आत्महिंसा का अर्थ केवल विष भक्षणादि द्वारा आत्मघात (आत्महत्या) ही मानते हैं। उसके अन्तर्तम तक पहुंचने का प्रयत्न नहीं किया जाता है । अन्तर में राग-द्वेष-मोह की उत्पत्ति होना भी हिंसा है यह बहुत कम लोग जानते हैं। प्रसिद्ध जैनाचार्य अमृतचंद्र ने अंतरंग पक्ष को लक्ष्य में रखते हुए हिंसा-अहिंसा की निम्नलिखित परिभाषाएं दी हैं 'अप्रादुर्भाव: खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिसेति जिनागमस्य संक्षेपः ।।" आत्मा में राग-द्वेष-मोहादि भावों की उत्पत्ति होना ही हिंसा है और इन भावों का आत्मा में उत्पन्न नहीं होना ही अहिंसा है। यही जिनागम का सार है। उक्त श्लोक का अर्थ करते हुए आचार्यकल्प पंडित टोडरमल ने लिखा है "अपने शुद्धोपयोगरूप प्राण का घात रागादिक भावनि त होय है । तिसत रागादिक भावनि का अभाव सोई अहिंसा है। आदि शब्द से द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, शोक, जुगुप्सा, प्रमादादिक समस्त विभाव भाव जानने।"२ १. पुरुषार्थसिद्धयुपायः आचार्य अमृतचंद्र, श्लोक ४४ । २. पुरुषार्थसिद्धयुपाय भाषाटीका, पृ० ३४ ११२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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