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________________ माना जाता है । उसके बाद तो जीवनोपयोगी प्रत्येक विषय के ग्रंथ जैनों द्वारा प्रचुर परिमाण में रचे गये । इससे पहले की सभी जैन रचनाएं प्राकृत भाषा की ही हैं । आठवीं शताब्दी के महान् जैनाचार्य हरिभद्र सूरि बहुत प्रसिद्ध ग्रंथकार हैं, जिनकी रचनाओं की संख्या १४४४ बतलायी गयी है । उन्होंने ही सर्वप्रथम जैन आगमों की संस्कृत टीकाएं बनायीं और दर्शन, न्याय, धर्म, ज्योतिष, कथा आदि अनेक विषयों की रचनाएं बनायी हैं। योग सम्बन्धी आपकी रचनाएं भी बड़ी महत्त्वपूर्ण हैं । इनकी रचनाओं की भाषा प्राकृत एवं संस्कृत दोनों ही है । ये बड़े समन्वयशील उदार विचार वाले विद्वान् थे । इनकी बहुत-सी रचनाएं लुप्त हो गयी मालूम देती हैं । यद्यपि १४४४ की संख्या विचारणीय है, अभी तो इनकी रचनाएं १०० से भी कम संख्या में प्राप्त हैं, जिनकी सूची प्रकाशित हो चुकी है । आपकी प्रायः सभी उपलब्ध रचनाएं छप भी चुकी हैं। आचार्य हरिभद्र राजस्थान के ही महान् विद्वान् थे । वे चित्तौड़ के राजपुरोहित या पुरोहित - पुत्र बतलाये जाते हैं । उन्होंने अपने 'धूर्तास्थान' नामक विशिष्ट और विनोद प्रधान ग्रंथ की प्रशस्ति में 'चित्तौड़' का उल्लेख भी किया है । जैन याकिनी महत्तरा नामक साध्वी रत्न से आपको जैन धर्म में दीक्षित होने की प्रेरणा मिली थी। अतः आपने उनके महान् उपकार की स्मृति में अपने ग्रंथों की प्रशस्तियों में अपने को 'याकिनी महत्तरा स्यनु' बतलाया है । श्वेताम्बर परंपरा के अनुसार उनका समय छठी शताब्दी माना जाता था पर मुनि जिनविजयजी ने बड़ी खोजबीन के साथ इनका समय आठवीं शताब्दी सिद्ध किया है। पंडित सुखलालजी ने आचार्य हरिभद्र की महान देन के सम्बन्ध में कई भाषाण दिए तथा ग्रंथ एवं लेख लिखे हैं, जिनमें 'समदर्शी आचार्य हरिभद्र' नामक ग्रंथ विशेष रूप में द्रष्टव्य है । मुनि जिनविजयजी ने चित्तौड़ में 'हरिभद्रसूरि स्मृति मंदिर बनवाना प्रारंभ किया था जिसे जिनदत्त सूरि सेवा संघ ने अपने हाथ में लेकर पूरा बनवाया व गत वर्ष प्रतिष्ठा भी करवा दी है । इस हरिभद्रसूरि स्मृति मंदिर में याकिनी महत्तरा और हरिभद्र की बहुत ही सुन्दर मूर्तियां स्थापित की गई हैं। साथ ही आचार्य जिनवल्लभ सूरि, जिनदत्त सूरि आदि की मूर्तियां भी प्रतिष्ठित की गई हैं । ऐसे महान् आचार्य की कुछ रचनाओं का उल्लेख सम्वत् १२६५ में सुमतिगणि रचित गणधर साहर्द शतक की बृहद वृत्ति में भी पाया जाता है । इनमें से कुछ अब अप्राप्त हो गयी हैं । हरिभद्र नाम के और भी कई आचार्य पीछे की शताब्दियों में हो गये हैं और उनके भी कई ग्रंथ प्राप्त हैं । पर जिन रचनाओं के अन्त में 'याकिनी महत्तरा' के पुत्र रूप में उल्लेख है वे तो सुप्रसिद्ध आठवीं शताब्दी आचार्य भद्रबाहु और हरिभद्र की अज्ञात रचनाएं : १०६
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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