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________________ रिक्त शेष सभी चरितकाव्य अप्रकाशित हैं। प्रकाशित काव्यों में भी मूल (संस्कृत) का पता नहीं और जो मूलयुक्त काव्य प्रकाशित भी हुए थे तो आज अप्राप्य हैं, मात्र हिंदी अनुवाद भी सुलभ नहीं। जैन-कवियों के साथ यह अन्याय सुधी सहृदयों के लिए चिंता का विषय है। विषय-सामग्री जैसाकि पहले बताया जा चुका है, सकलकीति के काव्यों में महापुरुषों की मंवेग उत्पन्न करने वाली धर्म-कथाओं का प्ररूपण है जिनमें धार्मिक तत्त्वों का समावेश भरपूर है। किंतु इन तत्त्वों के महत्त्व को सिद्ध करने वाली अन्यान्य कथाओं, लोक-विश्वासों, कथानक-रूढ़ियों आदि का निरूपण कर काव्य में सरसता एवं जिज्ञासा का मणिकांचन योग हुआ है। संक्षेप में इनका किंचित् विवरण प्रस्तुत किया जाता है। जैन धर्म जीव कर्म-मलों से युक्त होता है। सोना भी खान में धूल तथा कांचनत्व से यक्त होता है। किंतु उसे साफ करने पर उसका कांचन स्वरूप उद्भासित हो जाता है। ठीक उसी प्रकार जीवन के अधर्मरूप कर्म-मल को दूर कर धर्मरूप जीवत्व को उद्भासित करना ही जैन-धर्म का प्रधान कार्य है। जीव मुख्यतः हिंसा, असत्य, स्तेय, परिग्रह और अब्रह्मचर्य रूप अधर्म से ग्रस्त है जिसे दूर किए बिना मुक्ति या मोक्ष अथवा शाश्वत सुख की उपलब्धि संभव नहीं। उन पंचविध मैल के आंशिक परित्याग को अणुव्रत कहते है जिनका पालन गृहस्थ के लिए आवश्यक है। इन व्रतों के गुणों की वृद्धि जिनसे होती है उन्हें गुणव्रत कहते हैं। ये संख्या में तीन हैं---दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थदण्ड । गुणवतों के अतिरिक्त चार शिक्षाव्रतों का भी गृहस्थ के जीवन में बहुत अधिक महत्त्व बतलाया गया है। क्योंकि इनसे गृहस्थ के धार्मिक जीवन का शिक्षण व अभ्यास होता है। ये संख्या में चार बतलाए गए हैं—सामायिक, पोषधोपवास, भोगोपभोग परिमाण तथा अतिथिसंविभाग ।' इसी प्रकार यति (श्रमण) धर्म का विवेचन करते हुए कवि ने उसे मुक्तिप्रद कहा है “सम्यग्दर्शनसंशुद्धो धर्मः स्वर्गसुखप्रदः । क्रमान्मुक्तिप्रदश्चैकादश सत्प्रतिमायुतः । महाव्रतसमित्यादिगुप्तित्रितयभूषितः ।। यतिधर्मोऽस्ति निष्पापो मुक्तिदानकपंडितः ।। १. भ. सकलकीति, शांतिनाथचरित, अधि० २, श्लोक ४४-४५ । २. वही, अधि० २, श्लोक ४६-४७ । ६२ : जैन विद्या का सांस्कृतिक अवदान
SR No.010327
Book TitleJain Vidya ka Sanskrutik Avadan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRamchandra Dwivedi, Prem Suman Jain
PublisherAdarsh Sahitya Sangh
Publication Year1976
Total Pages208
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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