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________________ ( ७२ ) जैनधर्म के लिये शासक बने और जैनधर्म के ही लिये वह न कहीं के होरहे । उनसे वही वीर थे ! ८ - 'शिलाहार वंश' के राजा लोग सम्भवतः चालुक्यों की छत्रछाया में राज्य करते थे । उनकी राजधानी कोल्हापुर में थी और यह जैनधर्म के अनन्य भक्त थे । इस वंश का पाँचवाँ राजा 'का' इतना प्रसिद्ध था कि उसका वर्णन श्रश्व इतिहासज्ञ मसूदी ने लिखा है । बारहवीं शताब्दि में इस वंश के राजा 'भोजद्वितीय' ने कलचूरियों से घोर युद्ध किया और बहमनी राजाओं के श्राने तक राज्य किया । इन राजाओं के धनाये हुए कई एक भव्य जैनमन्दिर श्राज भी मोजूद है । - पाण्ड्यवंश' के प्राचीन राजा जैनी थे, यह पहले किश्चित लिखा जा चुका है। यूनान देश के बादशाहों से इनका सम्पर्क था। ईस्वी दूसरी शताब्दि में एक पाण्डयराज ने अपने राजदूत बादशाह ऑगस्टस के पास भेजे थे। उनके साथ नग्न श्रमणाचार्य भी यूनान गये थे । इस उल्लेख से तत्कालीन राजा का जैन और प्रभावशाली होना प्रकट है । पाण्ड्यराजधानी मदुरा जैनों का केन्द्र था। चौथे पाण्डघराज 'उग्रपेरुवलूटी' ( सन् १२८ - १४० ) के राजदरवार में जैनाचार्य कुन्दकुन्द प्रणीत प्रसिद्ध तामिल काव्य कुर्रुल पढ़ा गया था । पज्ञवराज महेन्द्रवर्म्मन् के समकालीन 'पाण्डयराज' भी जैन थे, किन्तु उनकी चीलरानी शेष थी । उसी के संसर्ग से वह शैव हो गये । उपरान्त सन् १२५० में वारकुर नगर के जैन 1
SR No.010326
Book TitleJain Veero ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1931
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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