SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६६ ) की खूब श्रीवृद्धिकी थी । यह " महामण्डलेश्वर, समाधिगत पञ्च महाशब्द, त्रिभुवनमल्ल द्वारावतीपुरवराधीश्वर यादवकुलाम्यर ध मणि, समयक्त्वचूडामणि, मलपरोन्गण्ड, तलकाडुकोद्ग-नङ्ग लि-कोट्लूर-उच्छ हि-नोलम्बवाडि-हानुगल- गोएड, भुजथल, वीरागद श्रादि प्रतापसूचक पदवियों के धारक थे ! इन्होंने इतने दुर्जय दुर्ग जीते, इतने नरेशों को पराजित किया घ इतने श्राश्रितों को उस पदों पर नियुक्त किया कि जिससे ह्मा भी चकित हो जाता है !" इनकी रानी शान्तल देवी भी परम जिन भक्त थी । " "जिस प्रकार इन्द्र का वज्र बलराम का हल, विष्णु का चक्र, शक्तिघर व अर्जुन का गाण्डघी, उसी प्रकार विष्णुवर्द्धन नरेश के "गगराज" सहायक थे !" गद्गराज इनके मंत्री और "सेनापति" थे । यह कॉडिन्य गोत्रधारी बुधमित्र के सुपुत्र थे और जैनों के मूलसंघ के प्रभावक थे। यहां तक कि धर्म क्षेत्र में इनका श्रासन चामुण्डराय से भी बड़ा चढ़ा है। इनकी निम्न उपाधियाँ इनके सुकृत्य और सुकीर्ति का खुले पृष्ठ की तरह उपस्थित करती है- 'समाधिगण पञ्ज महाशब्द, महासामन्ताधिपति, महाप्रचंड नायक, वैरिभयदायक, गोत्रपवित्र, बुधजनमित्र, श्री जैनधर्मा मृताम्बुधिप्रवर्द्धन सुधाकर, सम्यक्त्वरत्नाकर, श्राहार भयभैपस्यशास्त्रदान विनोद, मध्यजन हृदयप्रमोद, विष्णुभुवर्द्धनभूपाल होय्सल महाराजराज्याभिषेक पूर्णकुम्भ, धर्महम्योधरण मूलस्थ
SR No.010326
Book TitleJain Veero ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain
PublisherJain Mitra Mandal
Publication Year1931
Total Pages92
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy