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________________ [४] करने आते हैं। श्वेताम्बरीय 'उपदेशतरिङ्गिणी' आदि ग्रन्थों से प्रगट हैं कि पहले यह तीर्थ दि० जैनों के अधिकार में था। श्वे० संघपति धारक ने अपना कब्जा करना चाहा, परन्तु गढ़ गिरिनार के राजा खङ्गार ने उसे भगा दिया था। खङ्गार राजा चूहासमास वश के थे। इस वंश ने १० वीं से १६ वी शताब्दी तक राज किया था। वह दिगम्बर जैन धर्म के संरक्षक थे। उन्हीं के वंश में राजा मंडलीक हुए थे, जिन्होंने भ० नेमिनाथ का सुन्दर मंदिर गिरिनार पर बनवाया था। सुलतान अलाउद्दीन के समय में दिल्ली के प्रतिष्ठित दिग० जैन सेठ पूर्णचन्द्र जी भी संघ सहित यहाँ यात्रा को आये थे। उस समय एक श्वेताम्बरीय संघ भी पाया था। दोनों संघों ने मिलकर साथ-साथ वन्दना की थी। संक्षेप में गिरिनार का यह इतिहास है। दक्षिणी भारत के मध्य कालीन दिगम्बर जैन शिलालेखों से भी गिरिनार तीर्थ की पवित्रता प्रमाणित होती है। ___ तलहटी में लगभग दो भील पर्वत पर चढ़ने के पश्चात् सोरठ का महल पाता है। यह चूड़ासमासवंश राजाओं का गढ़ था । एक छोटी सी दिजैन धर्मशाला भी है। किन्तु सोरठ के महल तक पहुँचने के पहले ही मार्ग में एक सुखा कुण्ड मिलता है जिस के उपर गिरिनार पर्वत के पार्श्व में एक पद्मासन दि० जैन प्रतिमा अङ्कित है। इस प्रतिमा की नासिका भग्न है । इस मूर्ति की बगल में ही एक युगल पुरुष व स्त्री की मूर्ति बनी हुई है और कमलनाल पर जिन प्रतिमा अङ्कित है। युगल सम्भवत: धरणेन्द्र-पद्मावती होंगे। वह मूर्तियाँ प्राचीन काल की हैं। यहां से थोड़ी दूर भागे चढ़ने पर सोरठ महल पहुंचने से पहले ही मार्ग से जरा हट कर चरणपट्ट मिलता है। इस पट्ट में चरणपादुकायें बनी हुई हैं, जिनके : ऊपर सीधे हाथ पर एक छोटे चरणचिन्ह बने हैं। उनके बराबर एक लेख है जो घिस जाने की वजह से पढ़ने में नहीं पाता है ।
SR No.010323
Book TitleJain Tirth aur Unki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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