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________________ [ ५२ ] विशालकाय प्रतिमा है, जिसके समान संसार में और कोई प्रतिमा नहीं है। विदेशों से भी यात्री उनके दर्शन करने आते हैं। स्टेशन से आने पर लगभग १० ११ मील दूर से ही इस दिव्यमूर्ति के दर्शन होते हैं । दृष्टि पड़ते ही यात्री अपूर्वं शान्ति अनुभव करता हैं और अपना जीवन सफल हुआ मानता है। हम रात्रि में श्रवणबेलगोल पहुचे थे, परन्तु वह महामस्तकाभिषेकोत्सव का सुअवसर था। सर्चलाईट की साफ़ रोशनी में गोम्मट - भगवान के दर्शन करते नयन तृप्त नही होते थे । उनकी पवित्र स्मृति आज भी हृदय को प्रफुल्लित और शरीर को रोमांचित कर देती है - भावविशुद्धि की एक लहर सी दौड़ जाती है । धन्य है वह व्यक्ति जो श्रवणबेलगोल के दर्शन करता है और धन्य है महा भाग चामुण्डराय जिसने यह प्रतिमा निर्माण कराई । दि० जैन साधुओं को 'श्रमण' करते हैं । कन्नड़ी में 'बेल' का अर्थ 'श्वेत' हैं और 'गोल' तालाब को कहते हैं। इसलिए श्रवणबेलगोल का अर्थ होता है - यह जैन साधुप्रो का श्वेत सरोवर | दि० जैन साधुनों की तपोभूमि रही है । राम रावण काल के बने हुये जिनमंदिर यहां पर एक समय मौजूद थे । अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी बारह वर्ष के दुष्काल से जैन संघ की रक्षा करने के लिए दक्षिण भारत को आये थे और इस स्थान पर उन्होंने संघ सहित तपश्चरण किया था । श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत पर 'भद्रबाहुगुफा' में उनके चरणचिन्ह विद्यमान हैं। वहीं उन्होंने समाधिमरण किया था । वही रहकर सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य ने जो दि० मुनि होकर उनके साथ आये थे उनकी वैयावृत्ति की थी। सम्राट चन्द्रगुप्त की स्मृति में यहाँ जिन मन्दिर और चित्रावली बनी हुई है। उनके अनुयायी मुनिजनों का एक 'गण' भी बहुत दिनों तक यहां रहा था। निस्संदेह श्रवणबेलगोल महापवित्र तपोभूमि है। यहाँ की जैनाचार्य - परम्परा ,
SR No.010323
Book TitleJain Tirth aur Unki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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