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________________ [ ४४ ] उसे पूरे पचास भव भी धारण नहीं करने पड़ते, बल्कि ४६ भवों में ही वह संसार भ्रमण से छूटकर मोक्ष लक्ष्मी का अधिकारी होता है । पं० द्यानतराय जी ने यहाँ तक कहा है कि"एक वार वंदे जो कोई । ताहि नरक पशुगति नहीं होई ।।" इस गिरिराज की वंदना करने से परिणामों में निर्मलता होती है, जिससे कर्मबध कम होता है-आत्मा में वह पुनोत संस्कार अत्यन्त प्रभावशाली हो जाता है कि जिससे पाप-पंक में वह गहरा फंसता ही नही है । दिनोंदिन परिणामों की विशुद्धि होने से एक दिन वह प्रबल पौरुष प्रकट होता है, जो उसे प्रात्मस्वातंत्र अर्थात् मुक्ति नसीब कराता है। सम्मेदाचल की वंदना करते समय इस धर्म सिद्धान्त का ध्यान रखें और बीस तीर्थङ्करों के जीवन चरित्र और गुणों में अपना मन लगाये रवखें। ____ इस सिद्धाचल पर देवेन्द्र ने आकर जिनेन्द्र भगवान की निर्वाण-भूमियाँ चिह्नित कर दी थीं-उन स्थानों पर सुन्दर शिसिरे चरण चिन्ह सहित निर्माण की गई थी। कहते हैं कि सम्राट श्रेणिक के समय में वे अतीवशीर्ण अवस्था में थी, यह देखकर उन्होंने स्वयं उनका जीर्णोद्धार कराया और भव्य टोंके निर्माण करा दी। कालदोष से वे भी नष्ट हो गई, जिस पर अनेक भव्य दानवीरों ने अपनी लक्ष्मी का सदुपयोग जीर्णोद्धार में लगा कर किया। सं० १६१६ में यहाँ पर दि० जैनियों का एक महान् जिनबिम्ब प्रतिष्ठोत्सव हुमा था। पहले पालगंज के राजा इस तीर्थ की देखभाल करते थे। उपरान्त दि. जनों का यहाँ जोर हुमा- किन्तु मुसलमानों के अाक्रमण में यहाँ का मुख्य मंदिर नष्ट हो गया। तब एक स्थानीय जमीदार पार्श्वनाथ जी की प्रतिमा को अपने घर उठा ले गया और यात्रियों से कर वसूल करके दर्शन कराता था। सन् १८२० में कर्नल
SR No.010323
Book TitleJain Tirth aur Unki Yatra
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages135
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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