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________________ तक पहुँचा है उससे तो उसके दर्शनका अभिप्राय है, मानवकी सहजबुद्धिको भ्रम में डाला जाये और वह कुछ निश्चय न कर भ्रान्त वारणाओको अप्रत्यक्ष रूपसे पुष्ट करे ।" जैनदर्शनका स्याद्वाद और अनेकान्तवाद परन्तु जैनदर्शनका स्याद्वाद सजयके उक्त अनिश्चिततावाद अथवा सशयवायसे एकदम भिन्न और निर्णय- कोटिको लिये हुए हैं। दोनों में पूर्व-पश्चिम अथवा ३६ के अको जैसा अन्तर है । जहाँ सजयका वाद अनिश्चयात्मक है वहाँ जैनदर्शनका स्याद्वाद निश्चयात्मक है । वह मानवकी सहज बुद्धिको भ्रममें नही डालता, बल्कि उसमें आभासित अथवा उपस्थित विरोधो व सन्देहोंको दूर कर वस्तु तत्त्वका निर्णय कराने में सक्षम होता है । स्मरण रहे कि समग्र ( प्रत्यक्ष और परोक्ष) वस्तु तत्त्व अनेकधर्मात्मक है उसमें अनेक (नाना ) अन्त ( धर्म - शक्ति - स्वभाव ) पाये जाते हैं और इसलिये उसे अनेकान्तात्मक भी कहा जाता है । वस्तुतत्त्वकी यह अनेकान्तात्मकता निसर्गत है, अप्राकृतिक नही । यही वस्तु में अनेक धर्मोंका स्वीकार व प्रतिपादन जैनोका अनेकान्तवाद है। सजयके वादको, जो अनिश्चिततावाद अथवा सशयवादके नाममे उल्लिखित होता है, अनेकान्तवाद कहना अथवा बतलाना किसी तरह भी उचित एव सङ्गत नही है, क्योकि सजयके बादमें एक भी सिद्धान्तकी स्थापना नही है, जैसाकि उसके उपरोक्त मत प्रदर्शन और राहुलजी पूर्वोक्त कथनसे स्पष्ट है । किन्तु अनेकान्तवादमें अस्तित्वादि सभी धर्मोकी स्थापना और निश्चय है । जिस जिस अपेक्षासे वे धर्म उसमें व्यवस्थित एव निश्चित हैं उन सबका निरूपक स्याद्वाद है । अनेकान्तवाद व्यवस्थाप्य है तो स्याद्वाद उसका व्यवस्थापक है । दूसरे शब्दोमें अनेकान्तवाद वस्तु ( वाच्य प्रमेय) रूप है और स्याद्वाद निर्णायक (वाचक तत्त्व) रूप है। वास्तव में अनेकान्तात्मक वस्तुतत्वको ठीक-ठीक समझने-समझाने, प्रतिपादन करने - कराने के लिये ही स्याद्वादका आविष्कार किया गया है, जिसके प्ररूपक जैनोके सभी (२४) तीर्थंकर हैं । अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीरको उसका प्ररूपण उत्तराधिकारके रूपमे २३ वें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथसे तथा भगवान् पार्श्वनाथको कृष्णके समकालीन २२ वें तीर्थंकर अरिष्टनेमिसे मिला था । इस तरह पूर्व पूर्व तीर्थकर अग्रिम तीर्थंकरको परम्परया स्याद्वादका प्ररूपण प्राप्त हुआ था। इस युगके प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव हैं जो इस युगके आद्य स्याद्वादप्ररूपक है महान् जैन तार्किक समन्तभद्र' और अकलदेव' जैसे प्रख्यात जैनाचार्योंने सभी तीर्थंकरोको स्पष्टत स्याद्वादी - स्याद्वादप्रतिपादक बतलाया है और उस रूपसे उनका गुण-कीर्तन किया है। जैनोकी यह अत्यन्त प्रामाणिक मान्यता है कि उनके हर एक तीर्थंकरका उपदेश 'स्याद्वादामृतगर्भ' होता है और वे 'स्वाद्वादपुण्योदधि' होते हैं। अत केवल भगवान् महावीर ही स्याद्वादके प्रतिष्ठापक व प्रतिपादक नहीं है। स्याद्वाद जैनधर्मका मौलिक सिद्धान्त है और वह भगवान् महा वीरके पूर्ववर्ती ऐतिहासिक एवं प्रागैतिहासिक कालसे समागत है । स्याद्वादका अर्थ और प्रयोग 'स्याद्वाद' पद स्यात् और वाद इन दो शब्दोसे बना है । 'स्यात्' अव्यय निपातशब्द है, क्रिया अथवा अन्य शब्द नही, जिसका अर्थ है कथञ्चित् किचित्, किसी अपेक्षा, कोई एकदृष्टि, कोई एक धर्मकी १ 'बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू वद्धश्च मुक्तश्च फल च मुक्ते । स्याद्वादिनो नाच तथैव युक्त नैकान्तदृष्टेस्त्वमतोऽसि शास्ता ॥ १४॥ । ' - स्वयभूस्तोत्रगत शभवजिनस्तोष २ "धर्मतीर्थकरेभ्योऽस्तु स्याद्वाविभ्यो नमो नमः । वृषभारिमहावीरान्तेभ्य स्वात्मोपलब्धये ॥ १ ॥ "लपीमस्त्रय - ६८ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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