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________________ - वस्तुमें सामान्य, विशेष, गुण, पर्याय आदि अनन्त धर्म भरे पडे हैं । उनमेंसे एक हो धर्मको यो एक धर्मात्मक ही वस्तुको स्वीकार करना एकान्तवाद है । सामान्यैकान्त, विशेषकान्त मेकान्त, अभेदेकान्त नित्यंकान्त, अनित्यैकान्त आदि एकान्तवाद हैं। एकान्तवादके स्वीकार करनेमें जो सबसे बडा दोष है वह यह है कि उन सामान्य विशेष आदिमेंसे केवल उसी एकको माननेपर दूसरे धर्मोका तिरस्कार हो जाता है और उनके तिरस्कृत होने पर उनका अभिमत वह धर्म भी नहीं रहता, जिसे वे मानते हैं, क्योकि उनका परस्पर अभेद्य सम्बन्ध अथवा अविनाभाव सम्बन्ध है । किन्तु विवक्षित और अविवक्षित धर्मोको मुख्य तथा गौण दृष्टिसे स्वीकार करने में उक्त दोष नही आता । अतएव अन्तिम तीर्थंकर महावीरने बतलाया कि यदि अविकल पूरी वस्तु देखना चाहते हो तो उन एकान्तवादोके समुच्चयस्वरूप अनेकान्तवादको स्वीकार करना चाहिए - उनकी परस्पर सापेक्षतामें ही वस्तुका स्वरूप स्थिर रहता और निखरता है। यही अनेकान्तवाद है, जिसकी व्यवस्था स्याद्वादके द्वारा बतायी जा चुकी है। सात उत्तरवाक्योंके समुदायका नाम सप्तभङ्गी है। यहाँ 'भङ्ग' शब्दका अर्थ उत्तरवाक्य अथवा वस्तुधर्म विवक्षित है। जिनमें सात उत्तरवाक्य या धर्म हो, उसे सप्तभागी कहते हैं। यह वक्ताकी प्रतिबोध्यको समझानेकी एक प्रक्रिया है। इसके स्वीकारका नाम सप्तमङ्गीबाद है। इस सप्तभगीमें सात ही उत्तरवाक्योका नियम इसलिए है कि प्रश्नकर्ताके द्वारा सात हो प्रश्न किये जाते हैं, और उन सात ही प्रश्न किये जानेका कारण उसकी सात ही जिज्ञासाएँ हैं तथा सात जिज्ञासाओका कारण भी वस्तुके विषयमें उठने वाले उसके सात ही सन्देह हैं और इन सात सन्देहोका कारण वस्तुनिष्ठ सात ही धर्म हैं । यो तो वस्तुमें अनन्त । धर्म हैं । किन्तु प्रत्येक धर्मको लेकर विधि-निषेध ( है, नही) की अपेक्षासे सात ही धर्म उसमें व्यवस्थित हैं वे सात धर्म इस प्रकार हैं--सत्त्व असत्त्व, सत्त्वासत्वोभय, अवक्तव्यत्व ( अनुभय) सत्त्वावक्तव्यत्व, असत्वावक्तव्यत्व और सत्त्वासत्त्वोभयावक्तव्यत्व । इन सातसे न कम है और न ज्यादा । इन सातमें तीन भङ्ग ( सत्त्व, असत्त्व और अवक्तव्यत्व) मूलभूत हैं, तीन (उभय, सत्त्वावक्तव्यत्व और असत्त्वावक्तव्यत्व) द्विसयोगी है और एक (सत्त्वासत्त्वोभयावक्तव्यत्व) त्रिसयोगी है । उदाहरणस्वरूप नमक, मिर्च और खटाई इन तीन मूल स्वादोके सयोगज स्वाद चार और बन सकते हैं और कुल सात ही हो सकते हैं। उनसे न कम और न ज्यादा । अत इन सात धर्मोके विषयमें प्रश्नकर्ताके द्वारा किये गये सात प्रश्नोका उत्तर सप्तभङ्गोसाव उत्तरवाक्योके द्वारा दिया जाता है । यही सप्तभगीन्याय अथवा शैली या प्रक्रिया है, जो वस्तुसिद्धिके लिए स्याद्वादका अमोघ साधन है । १ न्यायदीपिका पृ० १२७ तत्त्वार्थवात्तिक १६, जैनतर्कभाषा, पृ० १९ । २ अष्टसहस्री पृ० १२५, १२६ । -- ६४
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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