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________________ ४ कर्मवाद कर्म जड है, पौद्गलिक है, उसका जीवके साथ अनादिकालिक सम्बन्ध है। कर्मकी वजहसे ही जीव पराधीन है और सुखदुखका अनुभव करता है । वह कर्मसे अनेक पर्यायोको धारण करके चतुर्गति ससारमें घूमता है । कभी ऊँचा बन जाता है तो कभी नीचा, दरिद्र होता है तो कभी अमीर, मुर्ख होता है तो कभी विद्वान्, अन्धा होता है तो कभी बहिरा, लगडा होता है तो कभी बौना, इस तरह शुभाशुभ कर्मोकी बदौलत दुनियाके रगम चपर नटकी तरह अनेको भेपोको धारण करता है-अनगिनत पर्यायोमें उपजता और मरता है। यह सब कर्मकी विडम्बना-कर्मकी प्रपञ्चना है। वीरशासनमें कर्मके मूल और उत्तरभेद और उनके भी भेदोका बहुत ही सुन्दर, सूक्ष्म, विशद विवेचन किया है। वध, बधक, बन्थ्य और वन्धनीय तत्त्वोपर गहरा चार किया है । जीव कैसे और कब कर्मवध करता है इन सभी बातोका चितन किया गया है । कर्मवादसे हमें शिक्षा मिलती है कि हम स्वय ऊँचे उठ सकते है और स्वय हो नीचे गिर सकते है। वीरशासनमें जीवादि सात तत्त्वो, सम्यकुदर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यकचारित्ररुप मोक्षमार्ग और प्रमाण, नय, निक्षेप आदि उपायतत्त्वोका भी बहुत ही सम्बद्ध एव सगत, विशद व्याख्यान किया गया है । प्रमाणके दो (प्रत्यक्ष और परोक्ष) भेद करके उन्हीमें अन्य सव प्रमाणोंके अन्तर्भावकी विभावना कितने सुन्दर एव युक्तिपूर्ण ढगसे की गई है, वह एक निष्पक्ष विचारकको आकर्षित किये बिना नहीं रहती है। नयवाद तो जैन दर्शनकी अन्यतम महत्त्वपूर्ण देन है। वस्तुके अशज्ञानको नय कहते हैं। वे नय अनेक है। वस्तुके भिन्न-भिन्न अशोको ग्रहण करने वाले नय ही है । ज्ञाताको हमेशा प्रमाण-दृष्टि नही रहती है। कभी उसका वस्तुके किमी खास धर्मको ही जाननेका अभिप्राय होता है, उस समय उसको नय-दृष्टि होती है और इसीलिये ज्ञाताके अभिप्रायको जैन दर्शनमें नय माना है। चकि वक्ताकी वचन:प्रवृत्ति भी क्रमश होती है-वचनो द्वारा वह एक अशका ही प्रतिवचन कर सकता है । इसलिये वक्ताके वचन-व्यवहारको भी जैनदर्शनमें 'नय' माना है। अतएव ज्ञानात्मक और वचनात्मकरूपसे अथवा ज्ञाननय और शब्दनयके भेदसे नय वर्णित है। इस तरह वीरशासन वैज्ञानिक एव तात्त्विक शासन है। उसके अहिंसा, स्याद्वाद जैसे विश्वप्रिय सिद्धान्तोसे उसकी उपयोगिता एव आवश्यकता भी अधिक प्रकट होती है। वीरशासनके अनुयायी हम जैनोका परम कर्तव्य है कि भगवान् वीरके द्वारा उपदेशित उनके 'सर्वोदय तीर्थ' को विश्वमें चमत्कृत करें और उनके पवित्र सिद्धान्तोका स्वय ठीक तरह पालन करें तथा दूसरोको पालन करावें और उनके शासनका प्रसार करें। -४०
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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