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________________ सम्यक्त्वका अमूढदृष्टि अङ्ग : एक महत्त्वपूर्ण परीक्षण- सिद्धान्त यो तो सभी दर्शनो एव मतोंमें अपने-अपने सिद्धान्त एव आदर्श हैं। पर जैन दर्शनके आदर्श एव सिद्धान्त किसी व्यक्ति या समाज विशेषको लक्ष्य में रखकर स्थापित नही हुए वे हर व्यक्ति हर समाज हर समय और हर क्षेत्रके लिए उदित हुए हैं। उनका मुख्य उद्देश्य व्यक्ति और समाजका उत्पान तथा कल्याण करना है । अतएव जैनधर्मके प्रवर्तकों एवं स्थापकोने जहाँ आत्म-विकास तथा आत्म-कल्याणपर बल दिया है वहाँ बिना किसी चौकावाजीके दूसरोंके, चाहे वे उनके अनुयायी हो या न हो, उत्थान तथा कल्याणका भी ध्येय रखा है । जैन दर्शन जैनधर्मके इसी ध्येयकी पूर्तिके लिए उनके द्वारा आविष्कृत हुआ है । धर्म और दर्शनमें यही मौलिक अन्तर है कि धर्म श्रद्धामूलक है और दर्शन विचारमूलक । जब तक दर्शन द्वारा धर्मको पोषण नही मिलता तब तक वह धर्म कोरा अन्धानुकरण समझा जाता है । अत आवश्यक है कि धर्मसस्थापक धर्मको दर्शन द्वारा प्राणवान् बनायें ज्ञात होता है कि इसी दृष्टिको सामने रखकर लोककी गतानुगतिकता एव अन्धानुकरणको रोकने तथा उचित एव सत्य मार्गका अनुसरण करनेके लिए जैन मनीषियो तथा सन्तोने धर्मके उपदेशके साथ दर्शनका भी निरूपण किया है और उसके सिद्धान्तोकी स्थापना की है । आज हम इस छोटे से लेसमे जैन दर्शनके महत्वपूर्ण परीक्षण सिद्धात के सम्बन्धमें विचार करेंगे । परीक्षण सिद्धांत एक वैज्ञानिक तरीका यह जैन दर्शनका सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और प्रमुख सिद्धान्त है। इसके द्वारा बताया गया है कि किसी बातको ठोक-बजाकर परीक्षा करके ग्रहण करो उसे इसलिए ग्रहण मत करो कि यह अमुक्की कही है और उसे इसलिए मत छोडो कि अमुकफी कही हुई नहीं है। परीक्षाको कसौटी पर उसे कस लो और उसकी सत्यता-असत्यताको परख लो। यदि परख द्वारा वह सत्य जान पडे, सत्य साबित हो तो उसे स्वीकार करो और यदि सत्य प्रमाणित न हो तो उसे स्वीकार मत करो, उससे ताटस्थ्य (उपेक्षा - राग और न द्वेष ) रखो । जीवन बहुत ही अल्प है और इस अल्प जीवनमें अनेक कर्तव्य विषेय हैं । उसके साथ खिलवाड नही होना चाहिए। एक पैसेकी हाँडी खरीदी जाती है तो वह भी ठोक-बजाकर ली जाती है। तो धर्मके क्रय ( ग्रहण) में भी हाँडीको नीतिको क्यों नही अपनाना चाहिए ? उसे भी परीक्षा करके ग्रहण करना चाहिए। अत जीवन विकासके मार्गको चुननेके लिए परीक्षण सिद्धात नितांत आवश्यक है और उसे सदैव उपयोगमें लाना चाहिए। एक बार लौकिक कार्योंमें उसकी उपेक्षा कर भी दी जाय, यद्यपि यहाँ भी उसकी उपेक्षा करनेसे भयकर अलाभ और हानियां उठानी पडती हैं, पर धर्मके विषयमें उसकी उपेक्षा नही होनी चाहिए । एक बारकी बात है । काशीमें पचकोशीकी यात्रा अश्विन कार्तिकमें आरम्भ हो जाती है और लोग इस यात्राको पैदल चलकर करते है। यात्री गंगाजीके पाटोंके किनारे-किनारे जाते है और सभी स्याद्वाद महाविद्यालयके जैन घाट ( प्रभुघाट) से निकलते है । एक दिन हम लोगोको क्या सूझा कि जैन घाटपर जाकर एक किनारे दो-तीन पत्थर रख दिए और उनपर फूल डालकर पानी छिडक दिया। जब हम लोग यहांसे चुप-चाप चले आये और विद्यालयके घाटपर जाकर खडे हो गये, तो मोडी ही देरमे हम देखते हूँ कि - २८ - -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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