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________________ प्राप्त हो जाता है। अत मनको लिप्सामोको भस्मसात् कर देना चाहिये । एव मनोव्यापारके नष्ट हो जानेपर इन्द्रियां फिर विपयोमें प्रवृत्त नही हो सकती। "मूलाऽभावे कुत शाखा" समूल वृक्षको यदि नष्ट कर दिया जाय तो अकुर, पल्लव, शाखा आदि कैसे उत्पन्न हो सकते हैं । यथा णट्टे मणवावारे विसएसु ण जति इदिया सव्वे । छिण्णे तरुस्स मूले कत्तो पुण पल्लवा हूंति ॥६९॥ -आराधनासार। यह भी निश्चित है कि मन ही बन्ध करता है और मन ही मोक्ष करता है-"मन एव मनुष्याणा कारण बन्धमोक्षयो ।" देवसेनाचार्य पुन कहते हैं - मणमित्ते वावारे णट्टप्पण्णे य वे गुणा हुति । णट्टे आसवरोहो उप्पण्णे कम्मवन्धो य ।।७।। अर्थात् मनोवृत्तिके अवरोध और उसको उत्पत्तिसे दो बातें होती हैं। अवरोधसे कर्मोंका आस्रव रुकता है और उसकी उत्पत्तिसे कर्मो का बघ होता है। तब क्यो न हम अपनी पूरी शक्ति उसके रोकने में लगावें । } मन मतग हाथी भयो ज्ञान भयो असवार । पग पग पे अकुश लगे कस कुपन्थ चल जाय ।। ( मन मतग माने नही जो लो धका न खाय । जैनदर्शनमें मनोनिग्रहसे अपरिमित लाभ वताये हैं । यहाँ तक कि उससे केवलज्ञान–पूर्ण ज्ञान तक होता है और आत्मा परमात्मा हो जाता है, अल्पज्ञ सर्वज्ञ हो जाता है। देवसेनने कहा है खीणे मणसचारे तु तह आसवे य दुवियप्पे । गलइ पुराण कम्म केवलणाण पयासेइ ।।७३।। उव्वसिए मणगेहे ण? णीसेसकरणवावारे । विप्फुरिये ससहावे अप्पा परमप्पओ हवइ ।।८५।। अर्थ-मनके व्यापारके रुक जाने पर दोनो प्रकारका आस्रव-पुण्यास्रव एव पापास्रव रुक जाता है और पुराने कर्मोका नाश हो जाता है तथा केवलज्ञान प्रकट हो जाता है और आत्मा परमात्मा हो जाता है। फिर ससारके दुखोमें नही भटकना पडता, क्योकि कर्मबीज सर्वथा नाश हो जाता है । अत सुखाथियोको सयमसे जीवन विताना चाहिये। असयमसे जो हानिया उठानी पडती हैं वे प्रत्येक ससारी मनुष्यसे छिपी नहीं है । सयमके विषयमें ससारके आधुनिक महापुरुषोंके मन्तव्य देखे-* डॉ० सर ब्लेड कहते हैं कि-"असयमके दुष्परिणाम तो निर्विवाद और सर्वविदित है परन्तु सयमके दुष्परिणाम तो केवल कपोलकल्पित हैं। उपर्युक्त दो बातोंमें पहली बातका अनुमोदन तो बडे-बडे विद्वान करते हैं, लेकिन दूसरी बातको सिद्ध करने वाला अभी तक कोई मिला ही नहीं है"। सर जेम्स प्रेगटकी धारणा है कि-"जिस प्रकार पवित्रतासे आत्माको क्षति नही पहुँचती उसी प्रकार शरीरको भी कोई हानि नही पहुँचती-इन्द्रियसयम सबसे उत्तम आचरण है। डॉ० वेरियर कहते है कि–पूर्ण सयमके बारेमें यह कल्पना कि वह खतरनाक है, बिलकुल गलत खयाल है और इसे दूर करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। * विद्वानोंके ये मत लेखकने महात्मा गाधीरचित "अनीतिकी राह" पुस्तकसे उद्धृत किये हैं। - १६ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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