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________________ होगा — उसके शब्द और अर्थ चिन्तनमें संलग्न होगा तो वह अन्यत्र जायेगा ही कैसे - और जब वह नही जायेगा तो इन्द्रियाँ उस अग्निकी तरह ठंडी (राख) हो जायेंगी, जो ईंधनके अभावमें राख हो जाती हैं । वस्तुत इन्द्रियोको मनके व्यापारसे ही खुराक मिलती है । इसीलिये मनको हो बन्ध और मोक्षका कारण कहा गया है । शास्त्रस्वाध्याय मनको नियत्रित करनेके लिए एक अमोघ उपाय है । सम्भवत इसीसे 'स्वाध्याय परमं तप स्वाध्यायको परम तप कहा है। ये दो मुख्य उपाय हैं इन्द्रियो और मनको नियत्रित करनेके । इनके नियत्रित हो जानेपर ध्यान हो सकता है । अन्य सव ओरसे चित्तकी वृत्तियोको रोककर उसे एक मात्र आत्मामें स्थिर करनेका नाम ही ध्यान हैं। चित्तको जब तक एक ओर केन्द्रित नही किया जाता तब तक न आत्मदर्शन होता है न आत्मज्ञान होता है और न आत्मामें आत्माकी पर्या और जब तक ये तीनो प्राप्त नहीं होते तब तक दोष और आवरणोकी निवृत्ति सम्भव नहीं । अत योगी ध्यानके द्वारा चित् और आनन्दस्वरुप होकर स्वयं परमात्मा हो जाता है। आचार्य रामसेन' लिखते है कि जिस प्रकार सतत अभ्यास से महाशास्त्र भी अभ्यस्त एव सुनिश्चित होते हैं उसी प्रकार निरन्तरके ध्यानाभ्याससे ध्यान भी अभ्यस्त एव सुस्थिर हो जाता है। वे योगीको ध्यान करने की प्रेरणा करते हुए कहते हैं 'हे योगिन् । यदि तू ससार वधनसे छूटना चाहता है तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र - रूप रत्नत्रयको ग्रहण करके बन्धके कारणरूप मिथ्यादर्शनादिरुके त्यागपूर्वक निरन्तर सद्स्यानका अभ्यास कर' । " ध्यानके अभ्यासकी प्रकर्षतासे मोहका नाश करनेवाला चरम-शरीरी योगी तो उसी पर्यायमें मुक्ति प्राप्त करता है और जो चरमशरीरी नही है वह उत्तम देवादिकी आयु प्राप्त कर क्रमश मुक्ति पाता है । यह ध्यानकी ही अपूर्व महिमा है ।' रत्नत्रयमुपादाय त्यक्त्वा बन्ध-निबन्धनम् । ध्यानमभ्यस्यता नित्यं यदि योगिन् । मुमुक्षसे ॥ ध्यानाभ्यास प्रकर्षेण त्रुस्यन्मोहस्य योगिन । चरमाङ्गस्य मुक्ति स्वात्तदेवान्यस्य च क्रमात् ॥ -आ रामसेन, तत्त्वानुशासन २२३, २२४ । नि सन्देह ध्यान एक ऐसी चीज है जो परलोकके लिए उत्तम पाथेय है । इस लोकको भी सुखी, स्वस्थ और यशस्वी बनाता है। यह गृहस्य और मुनि दोनोंके लिए अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार उपयोगी है । यदि भारतवासी इसके महत्त्वको समझ लें तो वे पूर्व ऋपियोके प्रभावपूर्ण आदर्शको विश्वके सामने सहज ही उपस्थित कर सकते हैं । जितेन्द्रिय और मनस्वी सन्तानें होगी तथा परिवार नियोजन, आपाधापी, सग्रह-वृति आदि अनेक समस्यायें इसके अनुसरणसे अनायास सुलझ सकती है। १. यथाभ्यासेन शास्त्राणि स्थिराणि स्युर्महान्त्यपि । तथा ध्यानमपि स्वयं लभतेऽम्यासर्वातिनाम् ।। ० ८८ । - ११६ -
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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