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________________ तथा हुम्बुच भी गये थे । हुम्बुच (हूमच) में भट्टारक देवेन्द्रकोतिजीने वहाँका शास्त्र-भण्डार दिखाया था। शास्त्र-भण्डारमें ताडपत्रकी सैकडो प्रतियाँ अस्त-व्यस्त पड़ी थी, जिनकी सूची भी नही बनी थी। हमने भट्रारकजीसे उनकी सूची बनवाने तथा उन्हें व्यवस्थित करने का अनुरोध किया था। उनकी कन्नड लिपि है। इतना प्रासङ्गिक कहकर अब हम प्रस्तुत ग्रन्थके सम्बन्धमें चर्चा करेंगे । जैसा कि प्रकाशकीयमें कहा गया है, यह मेरे विगत ४०-५० वर्षों में लिखे या विभिन्न सगोष्ठियोमें पढे निबन्यो या मेरे द्वारा लिखी कुछ शोधपूर्ण ग्रन्थ-प्रस्तावनाओंका महत्त्वपूर्ण सग्रह है। "जैन दर्शन और प्रमाणशास्त्र परिशीलन के निवन्धोंकी तरह इस 'जैन तत्त्वज्ञान-मीमासा'के निवन्धोका भी हमने स्क्य आद्योपान्त पुनरीक्षण-सम्पादन, आवश्यक सशोधन, परिवर्धन और परिवर्तन किया है। लेखोको कई-कई बार पढा और मांजा है। इसे प्रकाशमें ला ही रहे थे कि सयोगमे इसी बीच मेरे अभिनन्दन-ग्रन्यका निश्चय किया गया । इस अभिनन्दन-ग्रन्यको नया रूप देने के लिए उसके सम्पादकमण्डल तथा अभिनन्दनग्रन्योके प्रकाशनके अनुभवी श्री बाबूलालजी फागुल्लके परामर्शानुसार उक्त निवन्धोको उसमें भी संयोजित किया गया और अन्य विद्वानोंके विभिन्न लेखोको देनेकी परम्पराको छोड दिया । इस तरह इस संग्रहके निवन्धोका पाठकोंके लिए दोहरा लाभ हुमा। हमें आशा है प्रस्तुत अन्य उन पाठकोंको अधिक लाभदायक होगा, जिनके पास उक्त अभिनन्दन-पन्य नहीं होगा और इस दृष्टिसे यह एक महत्त्वपूर्ण सन्दर्भग्रन्थ सिद्ध होगा तथा कितनी ही नयी जानकारी प्रदान करेगा। इसके अधिकाश निवन्ध तत्त्वज्ञानपरक होनेसे इसका नाम 'जैन तत्वज्ञान-मीमांसा' रखा गया है। 'पुण्य और पापका शास्त्रीय दृष्टिकोण,' 'वर्तनाका अर्थ', 'अनेकान्तवाद-विमर्श', 'स्यद्वाद-विमर्ग', 'जन दर्शनमें सल्लेखना', 'जैन दर्शन में सर्वज्ञता', 'अर्थाधिगम-चिन्तन', 'सजद पदके सम्बन्ध, अकलङ्कदेवका महत्त्वपूर्ण अभिमत', '९३वें सूपमें 'सजद' पदका सद्भाव', 'नियमसारको ५३वी गाथा और उसकी व्याख्या एव अर्थपर अनुचिन्तन' आदि लेख उसीके द्योतक हैं। विश्वास है यह अन्य सभी प्रकारके पाठकोके लिए उपादेय एव उपयोगी सिद्ध होगा। हम डॉ० कस्तूरचन्दजी कासलीवालके अत्यन्त आभारी हैं, जिन्होने हमारी प्रेरणापर ग्रन्थका प्राक्कथन' लिखनेकी कृपा की। अन्तमें ट्रस्टके सभी दृष्टियो, कोपाध्यक्ष डॉ. श्रीचन्द्रजी जैन सगल एटाके हम विशेष अभारी हैं, जिनके सहयोगसे हमें सदैव उत्साह मिलता है । अभिनन्दनग्रन्थके सम्पादक-मण्डल और प्रिय वाबूलालजी फाल्गलको भी हम धन्यवाद दिये बिना नही रहेंगे, जिन्होंने इन निबन्धोको अभिनन्दन-ग्रन्थमें भी देकर उसके पाठकोंको लाभान्वित किया है । २७ जून १९८३, दरबारीलाल कोठिया चमेली-कुटीर, १/१२८, डुमरावबाग कॉलोनी, अस्सी, वाराणसी-५
SR No.010322
Book TitleJain Tattvagyan Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDarbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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