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________________ ६४ पदार्थ, अर्थ आदि शब्दों का प्रायः एक ही अर्थ में श्रागमों में 'सत्' शब्द का प्रयोग वहुत कम है शब्द का ही प्रयोग है और द्रव्य को ही तत्त्व कहा । जैन- दर्शन प्रयोग हुआ है । वहाँ प्रायः द्रव्य गया है । भगवती सूत्र में महावीर और गौतम के बीच एक संवाद है । गौतम महावीर से पूछते हैं - 'भगवन् ! यह लोक क्या है ?' महावीर उत्तर देते हैं - ' गौतम ! यह लोक पंचास्तिकाय रूप है । पंचास्तिकाय ये हैं-धर्मास्तिकाय, ग्रधर्मास्तिकाय, ग्राकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय' । यहाँ पर काल की स्वतन्त्र रूप से गणना नहीं की गई है । कई स्थानों पर काल को स्वतन्त्र रूप से गिना गया है । कहीं कहीं पर काल के स्थान में श्रद्धासमय शब्द का भी प्रयोग हुआ है । इस प्रकार काल को मिला देने से कुल छः द्रव्य हो जाते हैं । प्रत्येक द्रव्य जीव और अजीव के विश्लेषण से बनते हैं । जीवद्रव्यको जीवास्ति काय कहा गया । जीवद्रव्य के पाँचभेद किए गए — धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय श्राकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और काल ( श्रद्धासमय ) | जीव की भिन्न-भिन्न वृत्तियों के अनुसार उसकी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ होती हैं और उन्हीं अवस्थाओं के आधार पर तत्त्व के नवभेद किये गये हैं । इन अवस्थाओं में अजीव का भी हाथ रहता है । नव भेद ये हैं- जीव, जीव, ग्रास्रव, बंध, पाप, पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष । इन नव भेदों में कुछ जीव की अपनी अवस्थाएँ हैं, कुछ अजीव की अपनी अवस्थाएँ हैं, व कुछ दोनों की मिश्रित अवस्थाएँ हैं । इस प्रकार जैन दर्शन विभिन्न दृष्टिकोणों से विभिन्न तत्त्व मानता है । इतना होने पर भी यह निश्चित है कि उसका दृष्टिकोण पूर्ण रूप से यथार्थवादी है । वह चेतन और अचेतन दोनों तत्त्वों को यथार्थ मानता है । इन्हीं तत्त्वों को जीव और अजीव कहा गया है । १ - 'तत्त्व' की चर्चा का प्रकरण देखिए ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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