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________________ जैन-दर्शन नानार्थवाद, तत्त्व की संख्या को दो तक ही सीमित नहीं रखता । उसकी दृष्टि दो से आगे बढ़ती हई असंख्य और अनन्त तक पहुँच जाती है। बाद के ग्रीक दार्शनिक डेमोक्रिट्स आदि परमाणुवादी (Atomists) नानार्थवाद के अन्तर्गत आते हैं । नानार्थवादी अनेक तत्त्वों को अन्तिम सत्य मानते हैं। वे एक या दो तत्त्वों को मुख्य न मानकर अनेक तत्त्वों को मुख्य और स्वतन्त्र मानते हैं। सभी तत्व अपने आप में पूर्ण और स्वतन्त्र होते हैं। उन्हें अपनो पूर्णता या सत्ता के लिए दूसरे तत्त्व पर निर्भर नहीं रहना पड़ता । लाइवनित्स नानार्थवादी तो था, किन्तु भौतिकवाद का कट्टर विरोधी था, अतः उसे हम यथार्थवाद की दृष्टि से नानार्थवादी नहीं कह सकते । उसके अनन्त मोनाड (Infinite Monads) आध्यात्मिक प्रकृति के थे अत: हम उसे आध्यात्मिक नानार्थवादी कह सकते हैं। भारतीय परम्परा में चार्वाक, जैन, हीनयान बौद्ध, वैशेषिक, नैयायिक आदि दार्शनिक विचारधाराएँ नानार्थवादी कही जा सकती हैं। इस प्रकार संक्षेप में यथार्थवाद के तीनों दृष्टिकोणों को समझ लेने के बाद भारतीय यथार्थवादी विचारधारा को जरा अधिक स्पष्ट करने का प्रयत्न करते हैं । मीमांसा के अनुसार ज्ञान और ज्ञेय भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। ज्ञेय के अभाव में ज्ञान उत्पन्न ही नहीं हो सकता। यह ज्ञेय तत्त्व जब इन्द्रिय के साथ सम्बद्ध होता है, तभी ज्ञान उत्पन्न होता है। प्रभाकर और कुमारिल दोनों प्राचार्यों ने ज्ञान और ज्ञेय के इस सम्बन्ध को माना है और अपनी-अपनी कृतियों में इस सिद्धान्त का पूर्ण समर्थन किया है। सांख्य दर्शन स्पष्टरूप से दो तत्व मानता है। ये दोनों तत्त्व अपने आप में सत् हैं। ये तत्त्व हैं-पुरुष और प्रकृति । दोनों शाश्वत हैं और एक दूसरे से स्वतन्त्र हैं । पुरुष की सत्ता प्रकृति पर निर्भर १–'द्रव्यजातिगुणेष्विन्द्रियसंयोगोत्था सा प्रत्यक्षा प्रतीतिः' ---प्रकरणपंचिका, पृ० ५२।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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