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________________ ५८ जैन-दर्शन जिसका मुझे इंद्रिय-प्रत्यक्ष हो रहा है। यह इंद्रिय-प्रत्यक्ष ज्ञान है, क्योंकि मैं उस प्रत्यक्ष का अनुभव कर रहा हैं-मुझे उसका संवेदन हो रहा है। एक आदर्शवादी की दृष्टि से पत्थर से लगा कर ज्ञान तक सब कुछ एक ही कोटि में है। जो ज्ञान का स्वभाव है वही पत्थर का स्वभाव है । पत्थर ज्ञान से कोई भिन्न वस्तु नहीं है । यह एक अलग प्रश्न है कि पत्थर, जो कि ज्ञान रूप है, मेरे ज्ञान तक ही सीमित है, या उसका क्षेत्र सारा विश्व है । जहाँ तक उसके स्वभाव का प्रश्न है, वह ज्ञानरूप है, चेतनारूप है, विचाररूप है । इन आध्यात्मिक धर्मों को छोड़कर उसके भीतर ऐसा कोई धर्म नहीं है, जिसे हम वास्तविक कह सकें । यथार्थवादी इसका निराकरण करते हुए कहता है कि पत्थर भी ज्ञान है और मेरा तद्विषयक प्रत्यक्ष भी ज्ञान है। ऐसी स्थिति में मैं उस पत्थर से दूसरे व्यक्ति का सिर फोड़ सकता हूँ, किन्तु तद्विषयक अपने ज्ञान से नहीं, ऐसा क्यों ? आदर्शवादी इस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर नहीं दे सकता । यथार्थवादी स्पष्ट रूप से कहता है कि ज्ञान का स्वभाव और बाह्य पदार्थ का स्वभाव दोनों बिलकुल भिन्न हैं। दो ऐसे तत्त्व कि जिनका स्वभाव सर्वथा भिन्न है, एक नहीं हो सकते। भौतिक तत्व का स्वभाव भिन्न है, आध्यात्मिक तत्त्व का स्वभाव भिन्न है । ऐसी दशा में दोनों एक नहीं हो सकते । इन सव हेतुओं के आधार पर यह कहना अनुचित नहीं कि भौतिक पदार्थों की ज्ञान से भिन्न स्वतन्त्र सत्ता है। जिस प्रकार आध्यात्मिक तत्त्व की सत्ता का कोई अन्य आधार नहीं है, किन्तु वह स्वयं सत् है, ठीक उसी प्रकार जड़ या भौतिक तत्त्व भी अपनी सत्ता के लिए किसी दूसरे तत्त्व का मुह नहीं ताकता । वह स्वयं सत् है, स्वतन्त्र है, अपने वल पर टिका हुया है। सामान्य रूप से यथार्थवाद का यही दृष्टिकोण है। यह भौतिक तत्त्व एक है या अनेक है, उसका ज्ञान और आत्मा के साथ क्या सम्बन्ध है, अनेक होने पर उनका परस्पर क्या सम्बन्ध है, आत्मा भौतिक तत्त्व से भिन्न एक स्वतन्त्र पदार्थ है या केवल उसी का परिणाम है, इत्यादि अनेक समस्याओं को सुलझाने के लिए यथार्थवादियों ने भिन्न-भिन्न
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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