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________________ गंन, जीवन और जगन् रहित है। हमारी सामान्य बुद्धि में इतनी योग्यता नहीं कि वह अन्तिम तन्य तक पहुँच सके । वह केवल गंवृति-सत्य (प्रपंच) तक ही सीमित है । यह नंवृनिमत्य वास्तविक-एवं अन्तिम सत्य नहीं है। हमारा साधारण जान पनमा मत्य तक नहीं पहुंच सकता। यह अन्तिम सत्य क्या है ? ग प्रश्न को लेकर विद्वानों में कुछ मतभेद है। कुछ विचारक कहते हैं कि माध्यमिक परम्परा इस अन्तिम नत्त्व को शून्य मानती है अर्थात् यह अन्तिम नन्य विधिम्प न होकर निषेधम्प है। दूसरे शब्दों में शून्य का प्राचं या हो सकता है कि वह तत्व नबंधा अगत् है--अभावात्मक है । इस प्रकार इन विचारों की मान्यतानुसार माध्यमिक का दूसरा अर्थ शून्यवाद हो जाता है और यही कानगा है कि माध्यमिक शून्यवाद के नाम से प्रमिला । छविचारक ऐसे है, जो माध्यमिक प्रतिपादित तत्त्व को अगत चा शून्य नहीं माननं । उनकी धागानुसार यह अन्तिम तत्त्व विधिप... मत। वे शून्य शब्द का प्रयोग अवश्य करते है किन्तु घनन नामिद्धि के लिए नहीं, अपितु मन की सिद्धि के लिए । वे कहते हैं शिशून्य का दोश्रयों में प्रयोग कन्ना चाहिये-एक स्वभाव-शून्य ग्रीन गग प्रपंच-गुर। प्रातिभानिक तत्त्व स्वभावशून्य है, अर्थात् उनका अपना को स्वभाव अथवा न्यनन्दनना नहीं है। वह केवल प्रपंच या निनाममान, हलिएका अन्तिम नत्व नहीं है। वास्तविक तत्त्व प्रपंचान्य गर्भात मात्र प्रकार प्रान या प्रतिमान में रहित है। पार में निममत्व है। वही अन्तिम नन्य है। जैसा कि महानया : " दोमलों के आधार पर धर्म-दंगना की। उनमें पनोरमत गमगार मग पानगाधिक नल है ।" ("पारमा राम-जानाकारता विपर है. साल है, प्रपंच हिल है,
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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