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________________ दर्शन. जीवन और जगत् पदार्थों का सच्चा ज्ञान होने से दुःख और उसके कारणों की परम्परा का प्रमशः क्षय होता है। इस क्षय के अनन्तर अपवर्ग-मोक्ष-निःश्रेयस. मिलता है । मोक्षावस्था में प्रात्मा को न दुःख होता है, न सुख । दुःख सुखादि, जो कि संसारावस्था में प्रात्मा के साथ समवाय सम्बन्ध से रहते है, अपवर्ग में उससे अत्यन्त विच्छिन्न हो जाते हैं । अात्मा के बुद्धि-आदिः गुणों का अत्यन्त उच्छेद ही मोक्ष है। इस अवस्था में रहने वाली श्रात्मा. अपने असली स्वरूप में होती है, जहाँ उसके साथ बुद्धि-प्रादि गुणः नहीं रहते। . . . वैशंपिक-'वैशेपिक-सूत्र' के रचयिता करणाद के शब्दों में भी यही झलक है कि निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए ही धर्म का प्रादुर्भाव होता है। भारतीय परम्परा में धर्म और दर्शन में उतना भेद नहीं है जितना कि पाश्चात्य परम्परा में । धर्म शब्द में दर्शन का समावेश व दर्शन शब्द में धर्म का समावेश हमारी परम्परा में बहुत साधारण वात है। कणाद ने अपने सूत्रों में जगह-जगह धर्म शब्द का प्रयोग किया है। ऐसा होते हुए भी उसका सम्प्रदाय वैशेषिक दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है, न कि वैशेषिक धर्म के रूप में । धार्मिक मान्यताओं की तर्कयुक्त सिद्धि ही हमारे यहां दर्शन के नाम से प्रसिद्ध है। कणाद ने लिखा है-धर्म वह पदार्थ है जिससे सांसारिक अभ्युदय और पारमार्थिक निःश्रेयस दोनों मिलते हैं। वैोपिक दर्शन का यही प्रयोजन है। पूर्व मीमांसा-'मीमांसासूत्र' का सर्व प्रथम सूत्र है-'अथातो धर्मजिजामा'। इसके भाष्य के रूप में 'शवर ने कहा है-'तस्माद् धर्मों जिज्ञामितव्यः । न हि निःश्रेयसेन पुरुपं संयुनक्तीति प्रतिजानीमहे ।' धर्म पुरुष को निःश्रेयस की प्राप्ति कराता है-कल्याण से जोड़ता है प्रतः धर्म अवश्य जानना चाहिए, यही भाष्यकार का अभिप्राय है। मनृप्य धर्म हात ही कल्याण-मार्ग की आराधना कर सकता है, अत: उने धर्म का ज्ञान होना आवश्यक है। धर्म के स्वरूप को ठीक तरह से F~-यायनूत्र, १/२ २-~पनोऽन्युदयनि:पममिद्धिः न धर्मः । -~ोपियन्त्र, १२
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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