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________________ र्शन, जीवन और जगत् नाधार भी दुःखमुक्ति ही है । संसार में रहने वाले प्राणी को स्कन्धरूप ःख से मुक्त करना-यही बौद्ध-विचारधारा का उद्देश्य है। सांख्यसांख्य दर्शन का प्रयोजन भी दुःखनिवृत्ति है। कपिल ने स्वरचित 'सांख्यसूत्र' में सबसे पहिले लिखा है कि जीवन का सर्वश्रेष्ठ पुरुषार्थ तीन प्रकार के दुःखों की प्रात्यन्तिक निवृत्ति है। ईश्वरकृष्णरचित 'सांख्यकारिका' का प्रथम श्लोक भी इसी वात का समर्थन करता है । संसार में अनेक प्रकार के दुःख होते हैं। सांख्य दर्शन के अनुसार उनकी तीन राशियाँ होती हैं--प्राध्यात्मिक, आधिदैविक, प्राधिभौतिक । आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार के होते हैं-शारीरिक एवं मानसिक । पाँच प्रकार के वात, पाँच प्रकार के पित्त, पाँच प्रकार के श्लेप्मा-इनके वैपम्य से जो रोग पैदा होते हैं, वह शारीरिक दुःख है । काम, क्रोध, मोह, मद, मत्सर आदि से जो क्लेश उत्पन्न होता है; वह मानसिक दुःख है । यक्ष, राक्षस, विनायक, ग्रह आदि के प्रावेश से जो दुःख होते हैं वे आधिदैविक दुःख हैं और अन्य जंगम प्राणियों से तथा प्राकृतिक स्थावर पदार्थों से जो दुःख मिलता है, वह आधिभौतिक दुःख है । अध्यात्म, अधिदेव और अधिभूत सदा अभेद्य रूप से परस्पर वद्ध है । कभी किसी की प्रधानता होती है, तो कभी किसी की। जिस समय जिसकी प्रधानता होती है उस समय उसी का नाम लिया जाता है इन तीनों प्रकार के दुःखों का ऐकान्तिक-श्रात्यन्तिक नाश दृष्ट उपायों से नहीं हो सकता । इसीलिए ऐसे उपाय की जिज्ञासा होती है जिससे इनका समूल सार्वदिक विनाश हो जाय-ये हमेशा के लिए जड़ से खत्म हो जाएं । यह कैसे हो सकता है ? सांख्य दर्शन अपनी मान्यता के अनुसार इसका उत्तर देता है कि यह कार्य सच्चे ज्ञान से ही हो सकता है। यह ज्ञान क्या है ? उसकी प्राप्ति के क्या उपाय हैं ? आदि प्रश्नों के समाधान के रूप में पुरुष और प्रकृति के आधार पर सांख्य-विचारधारा आगे बढ़ती है । यही सांख्यदर्शन की उत्पत्ति और गति का आधार है। १---प्रध प्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिः अत्यन्तपुरुषार्थः । २ --दुःखप्रयाभिघाताज्जिनासा तदपधातके हेती। मानेन नापवा ..................
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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