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________________ २६ जैन-दर्शन नहीं, इस अंश का मूल्य व्यावहारिक अंश से कई गुना अधिक है अथवा यों कहिए कि उसका मूल्यांकन करना सामान्य मानव की शक्ति से बाहर है। काव्य, कला, दर्शन आदि इसी अंश की प्रतिष्ठा व सेवा करते हैं, इसी का परिवर्धन व परिष्कार करते हैं । ये जीवन के व्यावहारिक अंश को भी कभी-कभी मार्गदर्शन करते हैं। इस दूसरे अंश को हम आध्यात्मिक जीवन (Spiritual Life) अथवा आन्तरिक जीवन (Inner Life) कह सकते हैं । दर्शन की उत्पत्ति में यही जीवन प्रधान कारण है, ऐसा कहें तो अनुचित न होगा । सामान्यरूप से इतना समझ लेने पर आगे यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि इस जीवन के कौन-कौन से विशिष्ट दृष्टिकोण दर्शन को उत्पन्न करने में सहायक बनते हैं । उन कारणों को समझ लेने पर आध्यात्मिक जीवन का पूरा चित्र सामने आ जाएगा। दर्शन की उत्पत्ति : सोचना मानव का स्वभाव है । वह किस रूप में सोचता है, यह एक अलग प्रश्न है, किन्तु वह सोचता अवश्य है । जहाँ सोचना प्रारम्भ होता है वहीं से दर्शन शुरू हो जाता है । इस दृष्टि से दर्शन उतना ही प्राचीन है जितना कि मानव स्वयं। इस सामान्य कारण के साथ-ही-साथ मानव जीवन के आसपास की परिस्थितियाँ एवं उसके परम्परागत संस्कार भी दर्शन की दिशा का निर्माण करने में कारण बनते हैं । प्रत्येक दार्शनिक की विचारधारा इसी आधार पर बनती है और इन्हीं कारणों की अनुकूलता-प्रतिकूलता के अनुसार आगे बढ़ती हैं। स्वभाव-वैचित्र्य और परिस्थिति विशेष के कारण ही विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोण होते हैं। सोचने के लिए जिस ढंग की सामग्री उपलब्ध होती है उसी ढंग से चिन्तन प्रारम्भ होता है । इस सामग्री के विषय में अलग अलग मतः हैं। कोई आश्चर्य को चिन्तन का अवलम्बन समझता है, तो कोई. संदेह को उसका आधार मानता है। कोई बाह्य जगत् को महत्त्व देता है, तो कोई केवल आत्म-तत्त्व को ही सब कुछ समझता है। इन सब दृष्टिकोणों के निर्माण में मानव का व्यक्तित्व एवं बाह्य परिस्थितियाँ काम करती हैं।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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