SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ जैन-दर्शन विज्ञान के समन्वय का काल था । मध्यकालीन विज्ञान के अग्रदूतग्रोसेटेट, कोपरनिकस और रोजरवेकन बहुत बड़े महन्त थे। सतरहवींअठारहवीं शताब्दी में धर्म और विज्ञान ने अपना-अपना क्षेत्र सर्वथा अलग कर लिया। दोनों के बीच एक प्रकार का समझौता हो गया, जिसके अनुसार भौतिक जगत् का भार विज्ञान के कन्धों पर पड़ा और आध्यात्मिक जगत् का भार धर्म के लिए बच गया । डार्विन के विकासवाद. ने धर्म और विज्ञान के बीच इतनी गहरी खाई खोद दी कि दोनों के पुनर्मिलन की आशा हमेशा के लिए अस्त हो गई। आज हम धर्म और विज्ञान के बीच जो कलह या संघर्ष देखते हैं, वह वास्तव में धर्म और विज्ञान का संघर्ष नहीं है, अपितु उन दो वस्तुओं के बीच एक प्रकार की खटपट है, जो धर्म और विज्ञान के नाम से सिखाई जाती है । जिस प्रकार कला और विज्ञान के बीच कोई कलह नहीं है, कला और धर्म में कोई झगड़ा नहीं है, उसी प्रकार धर्म और विज्ञान में भी कोई संघर्ष नहीं है। दोनों की अपनी अपनी दृष्टि है और उसी दृष्टि के आधार पर दोनों तत्त्व के दो भिन्न-भिन्न अंशों को ग्रहण करने का प्रयत्न करते हैं । साधारणतया यह माना जाता है कि धर्म आन्तरिक अनुभव (Inner Experience) को अपना आधार बनाकर चलता है और विज्ञान बाह्य अनुभव (Outer Experience) पर खड़ा होता है, किन्तु इस भेद पर विशेष जोर देना ठीक नहीं, क्योंकि कभी-कभी धर्म बाह्य अनुभव को भी प्रमाण मानता हुआ आगे बढ़ता है। धर्म और विज्ञान में खास अन्तर यह है कि विज्ञान का सम्बन्ध वस्तु के अस्तित्व धर्म से ही होता है । विज्ञान, वस्तु को क्या है' केवल इसी रूप में ग्रहण करता है। धर्म, इस. 'क्या है' के साथ-ही-साथ उसका क्या मूल्य है' इस सत्य को भी प्रतिपादित करने का प्रयत्न. करता है । विज्ञान की दृष्टि में वस्तु का. अपना अस्तित्व होता है, मूल्य नहीं। मूल्यांकन करना धर्म की अपनी विशेषता है ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy