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________________ धर्म, दर्शन और विज्ञान से जितना ज्ञान कट्टा हो सकता है, इकट्ठा करने का प्रयत्न करता है। यह विज्ञान की पहली भूमिका है। इन भूमिका का ज्ञान विवाह होता है की सामग्री का कोई साधारणीकरण नहीं होना । जीवन जिस रूप में कन के आधार पर प्राप्त होता है वह ज्ञान उसी रूप में विखन हुमा पड़ा रहता है । उसकी कोई बुद्धिजन्य व्यवस्था नहीं होती-उसका किसी प्रकार का साधारणीकरण नहीं होना । जहा पर वृद्धिजन्य व्यवस्था प्रारंभ होती है वहीं से दूसरी भूमिका का प्रारम्भ होता है। यही दूसरी भूमिका रसल दूसरे भाग में रखी है। इस भूमिका में विज्ञान प्राप्त सामग्री के ग्रावार पर यह निर्णय करने का प्रयत्न करता है कि यह सारी सामग्री में विभाजित हो सकती है? कितनी ऐसी श्रेणियां बन गवानी है जारी सामग्री ठीक-ठीक बैठ सके ? का एक प्रकारको वर्गीकी भूमिका होती है, जिसमें ऐसे कुछ वर्ग बनाए जाते हैं जिनका नागान्य आधार होता है। इस प्रकार के वर्गीक को ही वाकर कहते हैं । मानव जाति हमेशा व्यवस्थित प्रणाली पसन्द करती है । अव्यवस्थित ज्ञान या पद्धति से किसी जाति वा समाज का कार्य सुचारु रूप से नहीं चल सकता, योंकि जाति वा नगाज का पर्व ही व्यवस्था होता है । विज्ञान की से कार्य होता है । सानी अव्यवस्थित नामग्री , १५. द्वितीय एक व्यवस्थित रूप धारण कर देती है । अनुभवजन्य ज्ञान के इस व्यवस्थित रूप की सामने कर ही विज्ञान अपने क्षेत्र में आगे तीने प्रयोग (Experiment) प्रारम्भ होता है। प्रयोग का होता है निस्पिन | सामान्य नियम या साधारणीकरके पापर परवार की जन्य सामग्री का परीक्षण करता. इसी का नाम निलोकन या प्रयोग है | यदि प्योग में या सामान्य नियम व उतरता है तो समम लिया जाता है कि है। प्रयोग में यदि कुछ कभी मालूम होती है तो में कुछ त्रुि है। सेना (Laboratory) विज्ञान के नियमों का मोतीपन है। जिनको पिया देती है
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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