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________________ ३४७ कर्मवाद द्रव्यकर्म और भावकर्म । कार्मण जाति का पुद्गल अर्थात् जड़तत्त्व विशेष जो कि ग्रात्मा के साथ मिलकर कर्म के रूप में परिगत होता है, द्रव्यकर्म कहलाता है । राग-द्वेोपात्मक परिणाम को भावकर्म कहते हैं । श्रात्मा और कर्म का सम्बन्ध प्रवाहतः ग्रनादि है । जीव पुराने कर्मों का विनाश करता हुआ नवीन कर्मों का उपार्जन करता रहता है। जब तक प्राणी के पूर्वोपार्जित समस्त कर्म नष्ट नहीं हो जाते एवं नवोन कर्मों का उपार्जन बंद नहीं हो जाता तब तक उसकी भवबन्धन से मुक्ति नहीं होती। एक बार समस्त कर्मों का विनाश हो जाने पर पुनः नवीन कर्मो का उपार्जन नहीं होता क्योंकि उस श्रवस्था में कर्मोपार्जन का कारण विद्यमान नहीं रहता । ग्रात्मा की इसी प्रवस्था को मुक्ति, मोक्ष, निर्वाण अथवा सिद्धि कहते हैं । कर्मबन्ध का कारण : जैन परम्परा में कर्मोपार्जन के दो कारण माने गये हैं: योग श्री कपाय | शरीर, वाणी और मन की प्रवृत्ति को योग कहते हैं । क्रोधादि मानसिक श्रावेगों को कपाय कहते हैं। वैसे तो प्रत्येक प्रकार का योग अर्थात् क्रिया कर्मोपार्जन का कारण है किन्तु जो योग कषाययुक्त होता है उससे होने वाला कर्मबन्ध विशेष बलवान् होता है जबकि कषायरहित क्रिया से होने वाला कर्मबन्ध प्रति निर्बल व अल्पायु होता है । दूसरे शब्दों में कृपाययुक्त अर्थात् राग पजनित प्रवृत्ति हो कर्मबन्ध का महत्त्वपूर्ण कारण है | कर्मबन्ध को प्रक्रिया: सम्पूर्ण लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ कर्मयोग्य परमाणु विद्यमान न हो । जब प्राणी अपने मन, वचन वा नन से किसी भी प्रकार की प्रवृत्ति करता है तब उसके ग्रास-पास चारों और से कर्मयोग्य परमाणुओं का आकर्षण होता है अर्थात् जितने क्षेत्र में ग्रात्मा विद्यमान होती है उतने ही क्षेत्र में विद्यमान परमाणु उनके द्वारा उन समय ग्रहण किये जाते हैं । प्रवृति की तरम के नुसार परमायुधों की मात्रा में भी
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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