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________________ ३३६ जैन-दर्शन द्वारा गृहीत 7 प्रकार हैं- पर और अपर । पर सामान्य सत्ता सामान्य को कहते हैं, जो प्रत्येक पदार्थ में रहता है । अपर सामान्य, पर सामान्य के द्रव्य, गुरण ग्रादि भेदों में रहता है । द्रव्य में रहने वाली सत्ता पर सामान्य है, और द्रव्य का जो द्रव्यत्व सामान्य है वह ग्रपर सामान्य है । इसी प्रकार गुरण में सत्ता पर सामान्य है और गुरगत्व अपर सामान्य है । द्रव्य के भी कई भेद-प्रभेद होते हैं। उदाहरण के लिए जीव द्रव्य का एक भेद है जीव में जीवत्व सामान्य अपर सामान्य है । इस प्रकार जितने भी ग्रपर सामान्य हो सकते हैं उन सबका ग्रहण करने वाला नय पर संग्रह है । पर संग्रह और पर संग्रह दोनों मिलकर, जितने भी प्रकार के सामान्य या प्रभेद हो सकते हैं, सबका ग्रहण करते हैं । संग्रह नय सामान्यग्राही दृष्टि है । व्यवहार — संग्रह नय अर्थ का विधिपूर्वक अवहरण करना, व्यवहार नय है ।" जिस ग्रर्थ का संग्रह नय ग्रहण करता है उस अर्थ का विशेष रूप से बोध कराना हो, तब उसका पृथक्करण करना पड़ता है | संग्रह तो सामान्य मात्र का ग्रहण कर लेता है, किन्तु वह सामान्य किंरूप है, इसका विश्लेषण करने के लिए व्यवहार का आश्रय लेना पड़ता है । दूसरे शब्दों में संग्रहगृहीत समान्य का भेदपूर्वक ग्रहण करना, व्यवहार नय है । यह नय भी उपर्युक्त दोनों नयों की भाँति द्रव्य का ही ग्रहण करता है, किन्तु इसका ग्रहण भेदपूर्वक है, प्रभेदपूर्वक नहीं । इसलिए इसका अन्तर्भाव द्रव्यार्थिक नय में है, पर्यायार्थिक नय में नहीं। इसकी विधि इस प्रकार है - पर संग्रह सत्ता सामान्य का ग्रहण करता है । उसका विभाजन करते हुए व्यवहार कहता है - सत् क्या है ? जो सत् है वह द्रव्य है या गुरण ? यदि वह द्रव्य है तो जीव द्रव्य है या अजीव द्रव्य ? केवल जीव द्रव्य कहने से भी काम नहीं चल सकता । वह जीव नारक है, देव है, मनुष्य है या तिर्यञ्च है ? इस प्रकार व्यवहार नय वहाँ तक भेद करता जाता है, जहाँ पुनः भेद की सम्भावना न १ - ' तो विधिपूर्वकमवहरणं व्यवहारः ' - तत्त्वार्थराजवार्तिक, १०३३।६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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