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________________ नयवाद ३२६ मालूम होती है-प्रशाश्वत प्रतीत होती है। इसीलिए पर्यायार्थिक दृष्टि भेदगामी है-विशेषमूलक है । हम किसी भी दृष्टि को लें, वह या तो भेदमूलक होगी या अभेदमूलक, या तो विशेषमूलक होगी या सामान्यमूलक । उक्त दो प्रकारों को छोड़कर वह अन्यत्र कहीं नहीं जा सकती। इसलिए मूलतः द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही दृष्टियाँ हैं, और इन दो दृष्टियों का प्रतिनिधित्व करने वाले दो नय हैं । अन्य दृष्टियाँ इन्हीं के भेद-प्रभेद-शाखा-प्रशाखाओं के रूप में हैं। द्रव्याथिक और प्रदेशाथिक दृष्टि : द्रव्याथिक और पर्यायाथिक दृष्टि की भाँति द्रव्याथिक और प्रदेशार्थिक दृष्टि से भी पदार्थ का कथन हो सकता है । द्रव्यार्थिक दृष्टि एकता का प्रतिपादन करती है, यह हम देख चुके हैं। प्रदेशार्थिक दृष्टि अनेकता को अपना विषय बनाती है। पर्याय और प्रदेश में यह अन्तर है कि पर्याय द्रव्य की देश और कालकृत नाना अवस्थाएँ हैं । एक ही द्रव्य देश और काल के भेद से विविध रूपों में परिवर्तित होता रहता है । इसके विविध रूप ही विविध पर्याय हैं । द्रव्य के अवयव प्रदेश कहे जाते हैं । एक द्रव्य के अनेक अंश हो सकते हैं । एक-एक अंश एक-एक प्रदेश कहलाता है । पुद्गल का एक परमाणु जितना स्थान घेरता है वह एक प्रदेश है। जैन दर्शन के अनुसार कुछ द्रव्यों के प्रदेश नियत हैं और कुछ के अनियत । जीवके प्रदेश सर्व देश और सर्व काल में नियत हैं। उनकी संख्या न कभी बढ़ती है, न कभी घटती है। वे जिस शरीर को व्याप्त करते हैं उसका परिणाम घट-बढ़ सकता है, किन्तु प्रदेशों की संख्या उतनी ही रहती है । यह कैसे हो सकता है, इसका समाधान करने के लिए दीपक का दृष्टान्त दिया जाता है । जैसे एक ही दीपक के उतने ही प्रदेश छोटे कमरे में भी पा सकते हैं और बड़े कमरे में भी, उसी प्रकार एक ही प्रात्मा के उतने ही प्रदेश छोटे शरीर को भी व्याप्त कर सकते हैं और बड़े शरीर को भी। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और प्राकाशास्तिकाय के प्रदेश तो नियत हैं। पुद्गलास्तिकाय के प्रदेशों का कोई निश्चित नियम नहीं। उनमें स्कन्ध के अनुसार
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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