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________________ जैन-दर्शन प्रत्येक भंग को निश्चयात्मक समझना चाहिए, अनिश्चयात्मक या सन्देहात्मक नहीं। इसके लिए कई बार 'ही' (एव) का प्रयोग भी होता है जैसे कथंचित् घट है ही...........'यादि । वह 'ही' निश्चितरूप से घट का अस्तित्व प्रकट करता है । 'ही' का प्रयोग न होने पर भी प्रत्येक कथन को निश्चयात्मक ही समझना चाहिए। स्याद्वाद सन्देह या अनिश्चय का समर्थक नहीं है, यह पहले कहा जा चुका है। चाह 'ही' का प्रयोग हो, चाहे न हो, किन्तु यदि कोई बचन-प्रयोग स्याद्वाद सम्बन्धी है तो यह निश्चित है कि वह 'ही' पूर्वक ही है। इसी प्रकार कथंचित् या स्यात् शब्द के विषय में भी समझना चाहिए। स्यात् का प्रयोग न होने पर भी वह अर्थात् समझ लिया जाता है । यही स्याद्वाद या अनेकान्तवाद की विशेषता है। 'कथंचित् घट है' इसका क्या अर्थ है ? किस अपेक्षा से घट है। स्वरूप की अपेक्षा से घट है और पररूप की अपेक्षा से घट नहीं है। सब स्वरूप की अपेक्षा से है और पररूप की अपेक्षा से नहीं है । यदि ऐसा न हो तो सब सत् हो जाए अथवा स्वरूप की कल्पना ही असम्भव हो जाए। कोई भी पदार्थ स्वरूप की दृष्टि से सत् है और पररूप की दृष्टि से असत् है । यदि वह एकान्तरूप से सत् हो तो सर्वत्र और सर्वदा उपलब्ध होना चाहिए, क्योंकि वह हमेशा सत् है । जो हमेशा सत् होता है वह कदाचित् नहीं होता। स्वरूप क्या है और पररूप क्या है, इसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है। हम कुछ दृष्टियों से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि स्वरूप और पररूप का क्या अभिप्राय है ? स्वरूप से क्या समझना चाहिए ? पररूप का क्या अर्थ लेना चाहिए ? नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव से जिसकी विवक्षा होती है वह स्वरूप या स्वात्मा है। वक्ता के प्रयोजन के अनुसार अर्थ का ग्रहण १-अप्रयुक्तो पि सर्वत्र स्यात्कारोऽर्थात् प्रतीयते । विधौ निषेधेऽप्पन्यत्र कुशलवेत् प्रयोजकः ।। -लघीयस्त्रय, २२५२६३ २-सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति चं। । अन्यथा सर्वसत्त्वं स्यात् स्वरूपस्याप्यसम्भवः ।।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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