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________________ २६६ जैन-दर्शन 'स्यात्' शब्द का प्रयोग अधिक देखने में आता है । जहाँ वस्तु की अनेकरूपता का प्रतिपादन करना होता है, वहाँ 'सिय' शब्द का प्रयोग साधारण सी बात है। अनेकान्तवाद शब्द पर दार्शनिक पुट. की प्रतीति होती है, क्योंकि यह शब्द एकान्तवाद के विरोधी पक्ष को सूचित करता है। स्थाद्वाद और सप्तभंगो : यह हम देख चुके हैं कि स्याद्वाद के मूल में दो विरोधी धर्म रहते हैं । इन दो विरोधी धर्मों का अपेक्षा भेद से कथन स्याद्वाद है । उदाहरण के लिए हम सत् को लेते हैं। पहला पक्ष है सत् का। जब सत् का पक्ष हमारे सामने आता है तो उसका विरोधी पक्ष असत् भी सामने आता है । मूल रूप में ये दो पक्ष हैं। इसके बाद तीसरा पक्ष दो रूपों में आ सकता है-या तो दोनों पक्षों का समर्थन करके या दोनों पक्षों का निषेध करके । जहाँ सत् और असत् दोनों पक्षों का समर्थन होता है वहाँ तीसरा पक्ष बनता है सदसत् का। जहाँ दोनों पक्षों का निषेध होता है वहाँ तीसरा पक्ष बनता है अनुभय अर्थात् न सत् न असत् । सत्, असत् और अनुभय इन तीन पक्षों का प्राचीनतम आभास ऋग्वेद के नासदीयसूक्त में मिलता है । उपनिषदों में दो विरोधी पक्षों का समर्थन मिलता है। 'तदेजति तन्नजति', 'अणोरणीयान् महतो महीयान्'२ 'सदसद्वरेण्यम्' आदि वाक्यों में स्पष्टरूप से दो विरोधी धर्म स्वीकृत किये गये हैं। इस परम्परा के अनुसार तीसरा पक्ष उभय अर्थात् सदसत् का बनता है। जहाँ सत् और असत् दोनों का निषेध किया गया, वहाँ अनुभय का चौथा पक्ष बन गया । इस प्रकार उपनिषदों में सत्, असत्, सदसत् और अनुभय ये चार पक्ष मिलते हैं। अनुभय पक्ष प्रवक्तव्य के नाम से भी प्रसिद्ध है । अवक्तव्य के तीन अर्थ हो सकते हैं-(१) सत् और १-ईशोपनिपद् ५ २-कठोपनिषद् १।२।२० ३–मुण्डकोपनिपद् २।२।१ - ४ ...'न सन्नचासत्' श्वेताश्वतरोपनिपद् ४११८
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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