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________________ स्याद्वाद २८७ नित्य कहा गया है वैसे ही नारकादि जीवों को भी जीव द्रव्य की अपेक्षा से नित्य कहा गया है। जैसे जीव सामान्य को नरकादि गतिरूप पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा गया है वैसे ही नारक जीव को भो नारकत्वरूप पर्याय की अपेक्षा से अनित्य कहा गया है। जीव की नित्यता विषयक स्थिति को अधिक स्पष्टतापूर्वक समझने के लिए एक और संवाद का उल्लेख करते हैं। महावीर जमाली को यह बात समझा रहे हैं :___ तीनों कालों में ऐसा कोई क्षण नहीं, जब कि जीव न हो। इसीलिए जीव ध्रुव है, नित्य है,शाश्वत है। जीव नारकावस्था का त्याग कर तिर्यंचयवस्था को प्राप्त करता है, तिर्यंच मिट कर मनुष्य होता है, मनुष्य से देव होता है। इन विभिन्न अवस्थाओं की दृष्टि से जीव अनित्य है । एक अवस्था का त्याग और दूसरी अवस्था का ग्रहण अनित्यता के बिना नहीं हो सकता' । लोक की नित्यता-अनित्यता के लिए जो हेतू दिया गया है, ठीक वही हेतु यहाँ पर भी उपस्थित किया गया है। तीनों कालों में जीव जीवरूप में रहता है, अतः वह नित्य है। उसकी विविध अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, इसलिए वह अनित्य है । सान्तता और अनन्तता: बुद्ध का जीव की सान्तता और अनन्तता के विषय में वही 'दृष्टिकोण है जो नित्यता और अनित्यता के विषय में था । महावीर ने इस विषय का अपनी दृष्टि से प्रतिपादन किया :-- १-सासए जीवे जमाली ! जं न कयाइ णासी, गो कयावि न भवति, ण कयावि रण भविस्सई, भुवि च भवई य भविस्सइ य, धुवे रिणतिए सासए अवखए अन्वए प्रवटिठए णिच्चे ।। प्रसासए जीवे जमालो !'जन्नं नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोगिए भवइ, तिरिक्खजोरिणए भवित्ता मणुत्से भवइ मगुस्से भवित्ता देवे भदइ। ~भगवती सूत्र, ६१६३८७, ११४१४२
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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