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________________ २७२ जैन-दर्शन अग्नि की सिद्धि के लिए धूम हेतु दिया गया है । 'इस पर्वत में धूम है' यह उस हेतु का उपसंहार है। यही उपनय है ।। निगमन-साध्य का पुनर्कथन निगमन है। प्रतिज्ञा के समय जो साध्य का निर्देश किया जाता है, उसको उपसंहार के रूप में पुनः दोहराना, निगमन कहलाता है । यह अन्तिम निर्णयरूप कथन है । 'इसलिए यहाँ अग्नि है' यह कथन निगमन का उदाहरण है। इन पाँचों अवयवों को ध्यान में रखते हुए परार्थानुमान का पूर्णरूप इस प्रकार होगा इस पर्वत में अग्नि ह, क्योंकि इसमें धूम है, जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है-जैसे पाकशाला (साधर्म्य दृष्टान्त,), जहाँ पर अग्नि नहीं होती वहाँ पर धूम नहीं होता-जैसे जलाशय (वैधर्म्य दृष्टान्त), इस पर्वत में धूम है, इसलिए यहाँ अग्नि है। अागम-प्राप्त पुरुष के वचन से आविर्भूत होने वाला अर्थसंवेदन आगम है । प्राप्त पुरुप का अर्थ है तत्त्व को यथावस्थित जानने वाला व तत्त्व का यथावस्थित निरूपण करने वाला । रागद्वे. पादि दोषों से रहित पुरुप ही प्राप्त हो सकता है, क्योंकि वह मिथ्यावादी नहीं हो सकता। ऐसे पुरुप के वचनों से होने वाला जान आगम कहलाता है। उपचार से प्राप्त के वचनों का संग्रह भी पागम है। परार्थानुमान और पागम में यही अन्तर है कि परार्थानुमान के लिए प्राप्तत्व आवश्यक नहीं है, जब कि ग्रागम के लिए प्राप्त पुरुप अनिवार्य है । प्राप्त पुरुप है इसीलिए उसके वचन प्रमाग हैं। उनके प्रामाण्य के लिए अन्य कोई हेतु नहीं । परार्थानुमान के लिए हेतु का अाधार पावश्यक है । हेत की सचाई पर ज्ञान की मचाई निर्भर है। लौकिक और लोकोत्तर के भेद से प्राप्त दो प्रकार के होते हैं। साधारगा व्यक्ति लौकिक प्राप्त हो सकते हैं । लोकोत्तर प्राप्त तीर्थकरादि विशिष्ट पुरुप ही होते हैं। 2-'माध्यधर्मस्य पुननिगमनम् । यथा तस्मादग्निग्य'। -प्रमागान यतत्त्वालांक ३१५१-५२ ---'ामवचनादावि तमर्थमंवेदन गमः।' -वही ?
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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