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________________ मानवाद और प्रमाणशास्त्र २६३ दार्गनिक खास दोष यह देते हैं कि स्मृति का विषय अतीत का अर्थ है । वह तो नष्ट हो चुका । उसके ज्ञान को इस समय प्रमाण कसे कहा जा सकता है ? जिस ज्ञान का कोई विपय नहीं, जिस अनुभव का कोई वर्तमान आधार नहीं, वह उत्पन्न ही कैसे हो सकता है ? विना विपय के ज्ञानोत्पत्ति कैसे सम्भव है ! इसका उत्तर यह है कि ज्ञान के प्रामाण्य का आधार वस्तु की यथार्थता है, न कि उसकी वर्तमानता । पदार्थ किसी भी समय उपस्थित क्यों न हो, यदि ज्ञान उसकी वास्तविकता का ग्रहण करता है तो वह प्रमाग है। वर्तमान, भूत और भविष्य किसी भी काल में रहने वाला पदार्थ ज्ञान का विषय बन सकता है । यदि वर्तमानकालीन पदार्थ को ही ज्ञान का विषय माना जाय तो अनुमान भी प्रमारण की कोटि से बाहर हो जायगा, क्योंकि वह त्रैकालिक वस्तु का ग्रहण करता है । केवल वर्तमान के आधार पर अनुमान की भित्ति नहीं बन सकती । स्मृति यदि अतीत के अर्थ का ग्रहण करती हुई यथार्थ है तो प्रमारण है । जो लोग यह अाग्रह रखते हैं कि वर्तमान पदार्थ का ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है, उनके विरोध में कोई यह भी कह सकता है कि अतीत के पदार्थ का ज्ञान ही प्रमाण है । कथनमात्र से यदि कोई बात सिद्ध हो जाती हो तो प्रमाग पीर अप्रमारण को परीक्षा ही व्यर्थ है । ज्ञान को प्रमाण इसलिए नहीं माना जाता है कि वह वर्तमान वस्तु का ग्रहण करता है या अतीत अर्थ को अपना विषय बनाता है या अनागत पदार्थ का चिन्तन करता है । ज्ञान वस्तु की यथार्थता का ग्राहक होने से प्रमाण माना जाता है । वह यथार्थता तीनों काल में रहने वाली हो सकती है। विरोधी एक दोप और देता है । वह कहता है कि जो वस्तु नष्ट हो चुकी है वह शानोत्पत्ति का कारण कैसे बन सकती है ? जैनदर्शन पदार्थ को ज्ञानोत्पत्ति का कारण नहीं मानता, यह वात अर्थ और पालोक की चर्चा के समय सिद्ध की जा चुकी है । जान अपने कारणों से उत्पन्न होता है, पदार्थ अपने कारणों से उत्पन्न होता है । ज्ञान में ऐसी शक्ति है कि वह पदार्थ को अपना विषय बना सकता है । पदार्थ का ऐसा स्वभाव है कि वह ज्ञान का विपय बन सकता है ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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