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________________ ज्ञानवाद और प्रमागाशास्त्र २५६ एक भेद है। इसलिए बौद्धदर्शन का प्रमाण-विभाजन अपूर्ण है । चार्वाक दर्शन केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है । इस मान्यता का खण्डन करते हुए कहा गया है कि केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष के आधार पर हमारा ज्ञान पूर्ण नहीं हो सकता । 'यह प्रमाण है, यह प्रमाण नहीं है' यह व्यवस्था अनुमान के अभाव में नहीं हो सकती। 'अमुक व्यक्ति अमुक प्रकार की भाषा का प्रयोग कर रहा है, अमुक प्रकार की उसकी चेष्टाएँ हैं अतः उसके मन में इस समय यह भावना काम कर रही है'---इस प्रकार की दूसरे की चेप्टा का ज्ञान करना प्रत्यक्ष से सम्भव नहीं । 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अनुमानादि परोक्ष नहीं'- इस प्रकार का निषेध भी प्रत्यक्ष के आधार पर नहीं किया जा सकता । इस प्रकार बिना अनुमान के न तो कोई व्यवस्था हो सकती है, न दूसरे का अभिप्राय जाना जा सकता है, न स्वपक्ष की सिद्धि अथवा परपक्ष का निषेध ही हो सकता है। इन्हीं सव कठिनाइयों को सामने रखते हुए जैन दार्शनिक अनुमानादि परोक्ष प्रमाण को भी मान्यता देते हैं तथा जो लोग केवल इन्द्रियप्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं उनकी मान्यता का विरोध करते हैं। जो ज्ञान यथार्थ होता है अर्थात् अर्थ के अनुकूल होता है वही ज्ञान प्रमाण माना जाता है । प्रत्यक्ष, अनुमान आदि सव के लिए यह सिद्धान्त समानरूप से महत्वपूर्ण है। द्विचन्द्रज्ञान प्रत्यक्ष होते हुए भी प्रमाण नहीं है क्योंकि वह ज्ञान यथार्थ नहीं है। उसका विपय चन्द्र तो एक है किन्तु ज्ञान में दो चन्द्रों का प्रतिभास होता है । जान और अर्थ में अनुकूलता नहीं है । अत: यह ज्ञान मिथ्या है । इसी प्रकार अनुमानादिजन्य ज्ञान भी मिथ्या हो सकता है । जिस प्रकार एक प्रत्यक्ष ज्ञान के मिथ्या होने से सारे प्रत्यक्षज्ञान मिथ्या नहीं हो जाते उसी प्रकार अनुमानादि में एक जगह व्यभिचार होने से सारे मान व्यभिचारी नहीं हो जाते । प्रत्यक्ष की तरह अर्थातुकूल उत्पन्न १-'व्यवस्पान्यधीनिषेधानां सिद्धेः प्रत्यक्षतरप्रमाणमिद्धिः । -~-प्रमारणमीमांमा ११११११
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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