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________________ २३० जैन-दर्शन का मत है कि श्र तज्ञान मतिपूर्वक ही होता है, जब कि मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि वह श्रुतपूर्वक ही हो । नन्दीसूत्र का मत है कि जहाँ आभिनिबोधिक ज्ञान (मति) है वहाँ श्र तज्ञान भी है और जहाँ श्रु तज्ञान है वहाँ मतिज्ञान भी है। सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थराजवातिक में भी इसी मत का समर्थन है। यहाँ प्रश्न यह है कि क्या ये दोनों मत परस्पर विरोधी हैं ? एक मत के अनुसार श्रु तज्ञान के लिए मतिज्ञान अनिवार्य है, जबकि मतिज्ञान के लिए श्र तज्ञान आवश्यक नहीं । दूसरा मत कहता है कि मति और श्रु त दोनों सहचारी हैं । एक के अभाव में दूसरा नहीं रह सकता। जहाँ मति होगी वहाँ श्रु त अवश्य होगा और जहाँ श्रु त होगा वहाँ मति अवश्य होगी। हम समझते हैं कि ये दोनों मत परस्पर विरोधी नहीं हैं। उमास्वाति जब यह कहते हैं कि श्रत के पूर्व मति आवश्यक है तो उसका अर्थ केवल इतना ही है कि जब कोई विशेष श्र तज्ञान उत्पन्न होता है तब वह तद्विषयक मतिपूर्वक ही होता है। पहले शब्द सुनाई देता है और फिर उसका श्रुतज्ञान होता है । मतिज्ञान के लिए यह आवश्यक नहीं कि पहले श्र तज्ञान हो और फिर मतिज्ञान हो, क्योंकि मतिज्ञान पहले होता है और श्रु तज्ञान बाद में । यह भी आवश्यक नहीं कि जिस विषय का मतिज्ञान हो उसका श्रु तज्ञान भी हो । ऐसी दशा में दोनों सहचारी कैसे हो सकते हैं ? नन्दीसूत्र में जो सहचारित्व है वह किसी विशेष ज्ञान की अपेक्षा से नहीं है । वह तो एक सामान्य सिद्धान्त है। सामान्यतया मति और श्रु त सहचारी हैं, क्योंकि प्रत्येक जीव में ये दोनों ज्ञान साथ-साथ रहते हैं। मति और श्रुत के बिना कोई जीव नहीं है । ऐकेन्द्रिय से लगाकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तक हरेक जीव में कम-से १--श्रुतज्ञानस्य मतिज्ञानेन नियतः सहभावः तत्पूर्वकत्वात् । यस्य श्रुत ज्ञानं तस्य नियतं मतिज्ञानं, यस्य तु मतिज्ञानं तस्य श्र तज्ञानं स्याद्वा न वेति । -तत्त्वार्थसूत्रभाष्य १।३१ २--२४ ३ --सर्वार्थसिद्धि १।३०; तत्त्वार्थ राजवातिक १।६।३०
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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