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________________ २२२ जैन-दर्शन नहीं । यदि धारणा इतने लम्बे काल तक चलती रहे तो धारणा और स्मति के बीच के काल में दूसरा ज्ञान होना सर्वथा असम्भव है, क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते' । संस्कार एक भिन्न गुण है, जो आत्मा के साथ रहता है । धारणा उसका व्यवहित कारण हो सकती है। किन्तु धारणा को सीधा स्मृति का कारण मानना युक्तिसंगत नहीं । धारणा अपनी अमुक समय की मर्यादा के बाद समाप्त हो जाती है । उसके बाद नया ज्ञान पैदा होता है । इस तरह एक ज्ञान के बाद दूसरे ज्ञान की परम्परा चलती रहती है। बादिदेवसूरि का यह कथन युक्तिसंगत है। ___मतिज्ञान के अवग्रह, ईहा. अवाय और धारणा-ये चार भेद किये गए । अवग्रह के व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह-ये दो भेद हुए । इनमें से अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा--ये चार प्रकार के ज्ञान श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन और मन-इन छः से होते हैं । व्यंजनावग्रह केवल श्रोत्र, घ्राण, रसन और स्पर्शन इन चार इन्द्रियों से होता है । चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं, अतः इन दोनों से व्यंजनावग्रह नहीं होता। अर्थावग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार पाँच इन्द्रियाँ और मन-इन छः से होते हैं, अत: ४४६-२४ भेद हुए । व्यंजनावग्रह मन और चक्षु को छोड़कर चार इन्द्रियों से होता है, अतः उसके ४ भेद हए । इन २४+४-२८ प्रकार के ज्ञानो म से प्रत्येक ज्ञान पुनः बहु, अल्प, बहुविध, अल्पविध, क्षिप्र, अक्षिप्र, अनिश्चित, निश्चित, असंदिग्ध, संदिग्ध, ध्रुव और अध्रुव-इस प्रकार बारह प्रकार का होता है। ये नाम श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार हैं। दिगम्बर परम्परा में इन नामों में थोड़ा सा अन्तर है। अनिश्चित और निश्चित के स्थान पर अनिःसृत और निःसृत और असंदिग्ध और संदिग्ध के स्थान पर अनुक्त और उक्त का प्रयोग है। १~स्याद्वादरत्नाकर २११० २~-'बहुबहुविधक्षिप्रानिश्चितासन्दिग्ध वाणां सेतराणाम् । -तत्त्वार्थसूत्र १११६ ३-सर्वार्थसिद्धि, राजवातिक आदि १११६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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