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________________ २१८ जैन-दर्शन अपेक्षित है । संयोग के लिए प्राप्यकारित्व अनिवार्य है । चक्षु और मन अप्राप्यकारी हैं, अत: इनके साथ अर्थ का संयोग नहीं होता। संयोग न होने से व्यंजनावग्रह नहीं होता । मन को अप्राप्यकारी माना जा सकता है, किंतु चक्षु अप्राप्यकारी कैसे है ? चक्षु अप्राप्यकारी है, क्योंकि वह स्पृष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं करता। यदि प्राप्यकारी होता तो त्वगिन्द्रिय के समान स्पृष्ट अंजन का ग्रहण करता। चूंकि वह ग्रहण नहीं करता, अतः अप्राप्यकारी है। कोई यह कह सकता है कि चक्षु प्राप्यकारी है, क्योंकि वह आवृत वस्तु का ग्रहण नहीं करता-जैसे त्वगिन्द्रिय । यह ठीक नहीं, क्योंकि चक्षु काच, अभ्र, स्फटिक आदि से प्रावृत अर्थ का ग्रहण करता है । यदि चक्षु अप्राप्यकारी है तो वह व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट अर्थ का भी ग्रहण कर लेगा। यह शंका ठीक नहीं, क्योंकि चुम्बक अप्राप्यकारी होते हुए भी अमुक सीमा के अन्दर रहने वाले लोहे को ही पकड़ता है, व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट को नहीं। चक्षु स्वयं प्राप्यकारी. नहीं है, अपितु इसकी तैजस रश्मियाँ प्राप्यकारी हैं। यह भी ठीक नहीं; क्योंकि हमें यह भी अनुभव नहीं होता कि चक्षु तैजस हैं। यदि चक्षु तैजस होता तो चक्षरिन्द्रिय का स्थान उष्ण होता। नक्तंचर प्राणियों के नेत्रों में रात को रश्मियाँ दिखाई देती हैं, अत: चक्षु रश्मियुक्त है, यह धारणा ठीक नहीं। अतैजस द्रव्य में भी भासुररूप देखा जाता है-जैसे मणि आदि । अतः चक्षु प्राप्यकारी नहीं है। अप्राप्यकारी होते हुए भी तदावरण के क्षयोपशम से वस्तु का ग्रहण होता है । इसलिए मन और चक्षु से व्यंजनावग्रह नहीं होता। श्रोत्र, घ्राण, रसन और स्पर्श इन चार इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होता है। अर्थावग्रह संयोगरूप नहीं है अपितु सामान्यज्ञानरूप है । चक्षु और मन से अर्थावग्रह होता है, क्योंकि इन दोनों का विषय-ग्रहण सीधा सामान्यज्ञानरूप होता है । इस प्रकार अर्थावग्रह पांच इन्द्रियाँ और छठा मन-इन छ: से होता है। ‘ईहा, अवाय और धारणा भी पाँचों इंद्रियों और मन पूर्वक होते हैं ।
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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