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________________ १९८ जैन-दर्शन जब एक है-अखण्ड है तब उसके दो विभाग कैसे हो सकते हैं ? लोकाकाश और अलोकाकाश का जो विभाजन है वह अन्य द्रव्यों की दृष्टि से है, आकाश की दृष्टि से नहीं। जहाँ पर जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल रहते हैं वहीं पुण्य और पाप का फल देखा जाता है, इसलिए वही लोकाकाश है। जिस आकाश में यह नहीं होता वह अलोकाकारा है। वैसे सारा आकाश एक है, अखण्ड है, सर्वव्यापी है। उसमें कोई भेद नहीं हो सकता। भेद का आधार अन्य है। आकाश की दृष्टि से लोकाकाश और अलोकाकाश में कोई भेद नहीं है । आकाश सर्वत्र एक रूप है । आकाश का लक्षण बताते हुए यह कहा गया कि अवकाश देना आकाश का धर्म है । लोकाकाश पाँच द्रव्यों को अवकाश देता है, अतः उसे हम आकाश कह सकते हैं। अलोकाकाश किसी को आश्रय नहीं देता, ऐसी दशा में उसे अाकाश क्यों कहा जाय ? इस शंका का समाधान यों किया जा सकता है कि आकाश का धर्म अवकाशदान है, यह ठीक है, किन्तु आकाश अवकाश उसी को दे सकता है जो उसके अन्दर रहता है। अलोकाकाश में कोई द्रव्य नहीं रहता तो फिर आकाश अवकाश किसे दे ? हाँ, यदि वहाँ कोई द्रव्य होता और फिर भी आकाश उसे अवकाश न देता तो हम कह सकते कि अलोक को आकाश नहीं कहना चाहिए । जब वहाँ कोई द्रव्य ही नहीं पहुँचता तो अलोकाकाश का क्या अपराध है। वह तो अवकाश देने के लिए सर्वदा प्रस्तुत है। कोई द्रव्य वहाँ पहुँचे भी तो सही। इसीलिए अलोक को आकाश मानने में कोई बाधा नहीं है। आकाश-स्वभाव वहाँ भी है। उससे लाभ उठाने वाला कोई द्रव्य वहाँ नहीं है। इसीलिए उसे अलोकाकाश कहते हैं। लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं और अलोकाकाश के अनन्त प्रदेश है। सारे आकाश के अनन्त प्रदेश हैं, यह कहा जा चुका है। अनन्त प्रदेश में से असंख्यात प्रदेश निकाल देने से जो प्रदेश बचते हैं वे भी अनन्त हो सकते हैं क्योंकि अनन्त बहुत बड़ा है । इतना ही नहीं, अनन्त में से अनन्त निकाल देने पर भी अनन्त रह
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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