SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 228
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६६ जैन-दर्शन क्रिया अथवा गति में सहायक है। जिस प्रकार मछली स्वयं तैरती है किन्तु उसकी यह क्रिया विना पानी के नहीं हो सकती, पानी के रहते हुए ही वह तालाब, कूप या समुद्र में तैर सकती है। पानी सूख जाने पर उसमें तैरने की शक्ति रहते हुए भी वह नहीं तैर सकती । इसका अर्थ यही है कि पानी तैरने में सहायक है। जिस समय मछली तैरना चाहती है उस समय उसे पानी की सहायता लेनी ही पड़ती है । न तैरना चाहे तो पानी उसके साथ बलप्रयोग नहीं करता। बहते हुए पानी का प्रश्न दूसरा है । उसी प्रकार जब जीव या पुद्गल गति करता है तब उसे धर्म द्रव्य की सहायता लेनी पड़ती है। अधर्म: जिस प्रकार गति में धर्म कारण है उसी प्रकार स्थिति में अधर्म कारण है।' जीव और पुद्गल जव स्थितिशील होने वाले होते हैं तब अधर्म द्रव्य उनकी सहायता करता है। जिस प्रकार धर्म के अभाव में गति नहीं हो सकती उसी प्रकार अधर्म के अभाव में स्थिति नहीं हो सकती । अधर्म एक अखण्ड द्रव्य है। इसके असंख्यात प्रदेश हैं। धर्म की तरह यह भी सर्वलोकव्यापी है । 'जिस प्रकार सम्पूर्ण तिल में तेल होता है उसी प्रकार सम्पूर्ण लोकाकाश में धर्मास्तिकाय है । एक चलते हुए पथिक के विश्राम में जिस प्रकार एक वृक्ष सहायक होता है उसी प्रकार गति करते हए जीव और पुद्गल की स्थिति में अधर्म द्रव्य सहायक होता है। धर्म और अधर्म द्रव्य की यह धारणा जैन-दर्शन की अप्रतिम देन है। कोई यह शंका कर सकता है कि धर्म और अधर्म मूलतः एक ही द्रव्य के अन्तर्गत हैं। ऐसा क्यों ? क्योंकि ये दोनों लोकाकाश १-नियमसार, ३० २-लोकाकाशे समस्तेऽपि धर्माधर्मास्तिकाययोः । तिलेषु तैलवत् प्राहुरवगाहं महर्षयः ॥ -तत्त्वार्थसार, ३१२३
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy