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________________ १६३ जैन दर्शन में तत्त्व केवल गर्भ नहीं है, अपितु सारा शरीर है । रक्त, मांस आदि इस शरीर के लक्षण हैं | वैक्रिय शरीर : देवगति और नरकगति में उत्पन्न होने वाले जीवों के वैक्रिय शरीर होता है । इन जीवों के अतिरिक्त लब्धिप्राप्त मनुष्य और तिर्यच भी इस शरीर को प्राप्त कर सकते हैं । यह शरीर साधारण इन्द्रियों का विषय नहीं होता । भिन्न भिन्न आकारों में परिवर्तित होना इस शरीर की विशेषता है । इसमें रक्त, मांस आदि का सर्वथा प्रभाव होता है । श्राहारक शरीर : सूक्ष्म पदार्थ के ज्ञान के लिए अथवा किसी शंका के समाधान के लिए प्रमत्त संयत ( मुनि ) एक विशिष्ट शरीर का निर्माण करता है । यह शरीर बहुत दूर तक जाता है और शंका-समाधान के साथ पुनः अपने स्थान पर या जाता है । इसे ग्राहारक शरीर कहते हैं । तेजस शरीर : यह एक प्रकार के विशिष्ट पुद्गल परमाणुत्रों ( तेजोवर्गणा ) से बनता है । जठराग्नि की शक्ति इसी शरीर की शक्ति है । यह प्रौदारिक शरीर और कार्मरण शरीर के बीच की एक ग्रावश्यक कड़ी है । कार्मरण शरीर : ग्रान्तरिक सूक्ष्म शरीर जो कि मानसिक, वाचिक और कायिक सभी प्रकार की प्रवृत्तियों का मूल है, कार्मरण शरीर है । यह ग्राठ प्रकार के कर्मों से बनता है । उपर्युक्त पाँच प्रकारों में से हम अपनी इन्द्रियों से केवल चौदारिक शरीर का ज्ञान कर सकते हैं । शेप शरीर इतने सूक्ष्म हैं कि हमारी इन्द्रियाँ उनका ग्रहण नहीं कर सकतीं । कोई वीतराग केवली ही उनका प्रत्यक्ष कर सकता है। इनकी सूक्ष्मता का क्रम इस प्रकार है— प्रदारिक से वैक्रिय सूक्ष्म है, वैक्रिय से ग्राहारक सूक्ष्म है, १३
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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