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________________ जैन दर्शन में तत्त्व १८३ इसका अर्थ यही है कि किसी की इंद्रियशक्ति इतनी तीव्र होती है कि वह बहुत दूर से साधारण सी वस्तु की गंध का पता लगा लेता है । किसी की इन्द्रियशक्ति इतनी मन्द होती है कि उसे तीव्र गंध का भी पता नहीं लग सकता । इसी प्रकार वायु, पानी, अग्नि आदि में गंध की साधारणतया प्रतीति नहीं होती, तथापि उनमें रूप, रस आदि की तरह गंध भी होती है। __ वैशेषिक दर्शन जिस प्रकार पृथ्वी आदि द्रव्यों में भिन्न गुण मानता है उसी प्रकार भिन्न द्रव्यों के भिन्न परमाणु भी मानता है। पृथ्वी के परमाणु अलग हैं, पानी के परमाणु अलग हैं, तेज के परमाणु अलग हैं और वायु के परमाणु अलग हैं । ये सारे परमाणु 'एक दूसरे से भिन्न हैं । पृथ्वी के परमाणु पानी के परमाणु नहीं बन सकते, पानी के परमाणु पृथ्वी के परमाणुओं में परिवर्तित नहीं हो सकते आदि । यह वैशेषिक दर्शन का परमाणु-नित्यवाद है। 'सव द्रव्यों के परमाणु नित्य होते हैं । उनका कार्य बदलता रहता है किन्तु वे कभी नहीं बदलते । जैन दर्शन ऐसा नहीं मानता । पृथ्वी आदि किसी भी पदगल द्रव्य के परमारण अप् आदि रूपों में परिणत हो सकते हैं। परमाणुगों के रूपों में परिवर्तन होता रहता है। नए नए स्कन्धों के भेद से नए नए परमारण बनते रहते हैं। किसी अन्य स्कन्ध में मिल जाने से फिर वे उस स्कन्ध के समान हो जाते हैं और पुनः भेद होने से उस नए रूप में रहने लग जाते हैं । परमाणु ओं की ऐसी जातियाँ नहीं वनी हुई हैं जिनमें वे नित्य रहते हों। एक परमाणु का दूसरे रूप में वदल जाना साधारण वात है । वैशेपिकों के परमाण -नित्यवाद में जैन दर्शन विश्वास नहीं रखता। ग्रीक दार्शनिक ल्युसिपस और डेमोक्रेट्स भी इसी तरह परमारण त्रों में भेद नहीं मानते। वे सब परमारण प्रों को एक जातिका मानते हैं। वह जाति है भूतसामान्य या जड़सामान्य । स्कन्ध : यह पहले ही कहा जा चुका है कि स्कन्ध प्रण ओं का समुदाय है। स्कन्ध तीन तरह से बनते हैं-भेदपूर्वक, संघातपूर्वक और भेद और संघात उभयपूर्वक । mararth."-" १--'भेदसंघातेभ्य उत्पद्यन्ते' -तत्त्वार्थसूत्र ५।२६
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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