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________________ जैन दर्शन में तत्त्व १७६ स्पर्शादि होते हैं, इसका निर्देश परमाणु के स्वरूप-वर्णन के समय किया जाएगा। वर्णादि पुद्गल के अपने धर्म हैं या हम लोग इन धर्मों का पुद्गल में आरोप करते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि ये धर्म पुद्गल के ही धर्म हैं । जो धर्म जिसका न हो उसका हमेशा आरोप नहीं हो सकता, अन्यथा कोई भी धर्म वास्तविक न होगा। यह ठीक है कि वर्णादि के प्रतिभास में थोड़ा बहुत अन्तर पड़ सकता है । एक वस्तु एक व्यक्ति को अधिक काली दीख सकती है और दूसरे को थोड़ी कम काली । इसका अर्थ यह नहीं होता कि वस्तु का काला वर्ण ही अयथार्थ है । यदि ऐसा होता तो कोई भी वस्तु काली दिखाई देती, क्योंकि कालापन वस्तु में तो है नहीं। जिसकी जब इच्छा होती काली वस्तु दिखाई देती । इसलिए वर्णादि धर्मों को वस्तुगत ही मानना चाहिए। उनकी प्रतीति के लिए कुछ कारणों का होना कुछ प्राणियों के लिए आवश्यक है, यह ठीक है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वे गुण अपने आप में कुछ नहीं हैं । गुण स्वतन्त्र रूप से यथार्थ हैं और उनकी प्रतीति के कारण अलग हैं। दोनों भिन्न-भिन्न चीजें हैं । न तो गुणों की सत्ता से आवश्यक कारण असत् हो सकते हैं और न कारणों के रहने से गुण ही मिथ्या हो सकते हैं। दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। पुद्गल के मुख्यतया दो भेद होते हैं-अणु और स्कन्ध । अरण : पुद्गल का वह अन्तिम भाग जिसका फिर विभाग न हो सके, अणु कहा जाता है । अणु इतना सूक्ष्म होता है कि वही अपनी आदि है, मध्य है और अन्त है । आदि, मध्य और अन्त एक ही हैं । अणु के अन्दर इन सबका कोई भेद नहीं होता । पुद्गल का सबसे छोटा हिस्सा अणु है। उससे कोई छोटा नहीं हो सकता । ग्रीक दार्शनिक जेनो ने एक । शंका उठाई थी कि पुद्गल का अन्तिम विभाग हो ही नहीं सकता। आप . १- अन्तादि अन्तमझ, अन्तन्तं रणेव इन्दिए गेझं। . जं दव्वं अविभागी, तं परमाणु विजारणीहि ।। -तत्त्वार्थ राजवार्तिक ५ । २५, १, १
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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