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________________ १६२ जैन-दर्शन केवल । इनमें से प्रथम दो अर्थात् मति और श्रुत को परोक्ष कहा । शेष तीन अर्थात् अवधि, मनःपर्यय और केवल को प्रत्यक्ष कहा । इन पाँच ज्ञानों में से प्रथम तीन ज्ञानों को विपर्यय कहा । इस प्रकार दो परोक्ष, तीन प्रत्यक्ष और तीन विपरीत यों कुल मिला कर ज्ञान के आठ भेद हुए । ज्ञानोपयोग की चर्चा इन आठ भेदों के साथ समाप्त होती है। दर्शनोपयोग : ज्ञानोपयोग की तरह दर्शनोपयोग भी दो प्रकार का हैस्वभावदर्शन ओर विभावदर्शन । __ स्वभावदर्शन आत्मा का स्वाभाविक उपयोग है। स्वभावज्ञान की तरह यह भी प्रत्यक्ष एवं पूर्ण होता है। इसे केवलदर्शन भी कहते हैं। ___ विभावदर्शन तीन प्रकार का होता है-चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन । चक्षुर्दर्शन-चक्षुरिन्द्रिय से होने वाला निराकार और निर्विकल्प दर्शन चक्षुर्दर्शन है। चक्षुरिन्द्रिय की प्रधानता के कारण चक्षुर्दर्शन नामक स्वतन्त्र भेद किया गया है । अचक्षुर्दर्शन-चक्षुरिन्द्रियातिरिक्त इन्द्रियों तथा मन से होने वाला जो दर्शन है वह अचक्षुर्दर्शन है ।। अवधिदर्शन-सीधा आत्मा से होने वाला रूपी पदार्थों का दर्शन अवधिदर्शन है। इस प्रकार दर्शनोपयोग के चार भेद हुए १-केवलदर्शन (स्वभावदर्शन), २-चक्षुर्दर्शन, ३–अचक्षुदर्शन, ४-अवधिदर्शन। ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के भेदों में यह अन्तर है कि दर्शनोपयोग कभी मिथ्या नहीं होता । सत्तामात्र का उपयोग मिथ्या. नहीं हो सकता । जब उपयोग सविकल्पक रूप धारण करता है-- विशेषग्राही होता है तव मिथ्या होने का अवसर आता है। सामान्य सत्तामात्र का ग्रहण मिथ्यात्व से परे है क्योंकि वहाँ केवल सत्ता का
SR No.010321
Book TitleJain Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMohanlal Mehta
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1959
Total Pages405
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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